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________________ .८४ जैनधर्मामृत वही नमस्कार करनेके योग्य है। इससे भिन्न स्वरूपका धारक भले ही गणका स्वामी हो तो भी आचार्य नहीं कहलायगा ॥८॥ उपाध्याय परमेष्टीका स्वरूप उपाध्यायः समाधीयात् वादी स्याद्वादकोविदः। वाग्मी वाग्ब्रह्मसर्वज्ञः सिद्धान्तागमपारगः ॥८६ कविव॑त्यग्रसूत्राणां शब्दार्थैः सिद्धसाधनात् । गमकोऽर्थस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्मनाम् ॥६॥ उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताभ्यासो हि कारणम् । यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद् गुरुः ॥११॥ शेपस्तत्र व्रतादीनां सर्वसाधारणो विधिः । कुर्याद्धर्मोपदेशं स नाऽऽदेशं सूरिवत् क्वचित् ॥१२॥ तेपामेवाश्रमं लिङ्गं सूरीणां संयमं तपः। आश्रयेच्छुद्धचारित्रं पञ्चाचारं स शुद्धीः ॥१३॥ मूलोत्तरगुणानेव यथोक्तानाचरेञ्चिरम् । परीपहोपसर्गाणं विजयी स भवेद् वशी ॥४॥ अनातिविस्तरेणालं नूनमन्तर्बहिर्मुनेः । शुद्धवेपधरो श्रीमान् निर्ग्रन्थः स गुणामणी ॥१५॥ शंकाकारोंके प्रश्नोंका समाधान करनेवाले, वाद अर्थात् शास्त्रार्थ करनेवाले, स्याद्वादके रहस्यके जानकार, वचन बोलनेमें चतुर, शब्द ब्रह्मके सर्वज्ञ, सिद्धान्तशास्त्रके पारगामी, वृत्ति-प्रधान सूत्रोंके विद्वान् , शब्द और अर्थसे उनकी सिद्धि करनेवाले, अर्थमें माधुर्य लानेवाले, वक्तृत्वकला-विशारदोंके अग्रगामी, इत्यादि गुणोंके धारक उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं। उपाध्याय होनेमें मुख्य कारण शास्त्रोंका अभ्यास है । जो गुरुजन स्वयं शास्त्रोंका अध्ययन करते
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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