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________________ द्वितीय अध्याय दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तप ये चार आराधना भी. समान हैं, क्रोधादि कषायोंका जीतना और उत्तम क्षमादि दश धौंका धारण करना भी समान है ||८१-८५॥ . .. यद्यपि तीनों परमेष्ठियोंकी अन्तरंग और बहिरंगमें प्रायः समता है, तथापि उनमें जो विशिष्ट पदोंको धारण करनेसे विशेषता है, उसे कहते हैं:-- : आचार्यपरमेष्ठीका विशिष्ट स्वरूप आचार्योऽनादितो रूढेोगादपि निरुच्यते । 'पञ्चाचारं परेभ्यः स आचारयति संयमी ॥६॥ अपि छिन्ने व्रते साधोः पुनः सन्धान मिच्छतः। 'तत्समावेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥२७॥ आचार्य संज्ञा अनादिकालसे नियत है, क्योंकि, पंच परमेष्ठियोंकी सत्ता अनादिकालीन है। निरुक्त्यर्थकी अपेक्षा भी आचार्य संज्ञा है। अर्थात् जो महासंयमी साधु दूसरे मुनियोंको दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यः-इन पंच आचारोंका आचरण कराता है, वह आचार्य कहलाता है। तथा, जिस किसी साधुके व्रत-भंग हो जाने पर यदि वह साधु उस व्रतको पुनः धारण करना चाहता है, तो आचार्य उस व्रतको फिरसे धारण कराते हुए उस साधुको प्रायश्चित्त देते हैं ।।८६-८७॥ .. .. उक्तव्रततपशीलसंयमादिधरो गणी । नमस्यः स गुरुः साक्षात्तदन्यो न गुरुर्गणी ॥८॥ . जो ऊपर कहे गये व्रत, तप, शील, संयम आदिका धारण करनेवाला है, वही गणका स्वामी आचार्य कहा जाता है, और E
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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