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________________ द्वितीय अध्याय ८५ हैं, तथा जो शिष्योंको उनका अध्यापन कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं । उपाध्यायमें पढ़ने-पढ़ानेके सिवाय शेष व्रतादिकोंकी पालनादि विधि मुनियोंके समान साधारण है। उपाध्याय परमेष्ठी धर्मका उपदेश कर सकते हैं, परन्तु आचार्यके समान धर्मका आदेश नहीं कर सकते । आचार्योंका जो आश्रम, लिंग, संयम और तप बतलाया गया है, वही उपाध्यायोंका होता है । वे शुद्ध-बुद्धि . उपाध्याय शुद्ध चारित्र और पंचाचारोंको भी आचरण करते हैं, परभागमोक्त मूलगुण और उत्तरगुणोंको भी चिरकाल तक आचरण करते हैं, वे वशी अर्थात् इन्द्रियोंको वशमें करनेवाले जितेन्द्रिय परीषह और उपसर्गोंको भी विजय करते हैं। यहाँ पर बहुत विस्तार न कर संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि उपाध्याय परमेष्ठी निश्चयसे मुनिके समान ही अन्तरंग और बाह्यमें शुद्ध वीतराग वेषके धारक होते हैं तथा बुद्धिमान् , निप्परिग्रह और गुणोंमें सर्वश्रेष्ठ होते हैं ।।८९-९५॥ - धुपरमेष्ठीका स्वरूप · मार्गो मोक्षस्य चारित्रं तत्सद्भक्तिपुरःसरम् । साधयत्यात्मसिद्धयर्थं साधुरन्वर्थसंज्ञकः ॥६६॥ नोच्याञ्चायं यमी किञ्चिद्धस्तपादादिसंज्ञया । न किञ्चिद्दर्शयेत्स्वस्थो मनसापि न चिन्तयेत् ॥१७॥ आस्ते स शुद्धमात्मानमास्तिघ्नुवनिश्च परम् । स्तिमितान्तर्बहिस्तुल्यो निस्तरङ्गाब्धिवन्मुनिः ॥८॥ नादेशं नोपदेशं वा नादिशेत् स मनागपि । स्वर्गापवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य किं पुनः ॥६६॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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