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________________ ८० जैनधर्मामृत अर्हन्निति जगत्पूज्यो जिनः कर्मारिशातनात् । महादेवोऽधिदेवत्वाच्छकरोऽपि सुखावहात् ॥७॥ विष्णुर्ज्ञानेन सर्वार्थविस्तृतत्वात्कथञ्चन । ब्रह्म ब्रह्मज्ञरूपत्वादरिर्दुःखापनोदनात् ॥७५।। इत्याद्यनेकनामापि नानेकोऽस्ति स्वलक्षणात् । यतोऽनन्तगुणात्मकद्रव्यं स्यासिन्दसाधनात् ।।७६॥ - जो शारीरिक विकारोंसे रहित दिव्य औदारिक शरीरमें स्थित हैं, घातिकर्म-चतुष्टयको धो चुके हैं, ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुखसे परिपूर्ण हैं और धर्मका उपदेश देते हैं, वे अरिहन्त परमेष्ठी हैं। ये अरिहन्त परमेष्ठी जगत्यूज्य हैं, इसलिए, 'अरहन्त' कहलाते हैं; कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाले हैं, इसलिए 'जिन' कहलाते हैं, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी और कल्पवासी इन चार जातिके समस्त देवोंके स्वामी हैं, इसलिए 'महादेव' कहलाते हैं, प्राणिमात्रको सुखके देनेवाले हैं, इसलिए 'शंकर' कहलाते हैं, ज्ञानकी अपेक्षा समस्त पदार्थों में व्यापक हैं, इसलिए 'विष्णु' कहलाते हैं, ब्रह्मस्वरूपके परम ज्ञायक हैं, इसलिए 'ब्रह्मा' कहलाते हैं, और जगत्के दुःखोंको हरनेवाले हैं, इसलिए 'हरि' कहलाते हैं । इत्यादि प्रकारसे वे अरहन्तदेव अनेक नामोंवाले हैं, तथापि अपने देवत्व लक्षणकी अपेक्षा एक ही हैं, अनेक नहीं हैं; क्योंकि, अनन्त गुणात्मक एक चेतनद्रव्यही साधक-युक्तियोंसे सर्वमें समानरूपसे सिद्ध है ।।७३-७६॥ सिद्धपरमेष्ठीका स्वरूप मूर्तिमद्देहनिर्मुक्तो मुक्तो लोकासंस्थितः। . ज्ञानाद्यष्टगुणोपेतः निष्कर्मा सिद्धसंज्ञकः ॥७७॥ .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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