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________________ द्वितीय अध्याय जब वे ही आचार्य अपनी विशिष्टसाधनाके बलपर चार घातिया काँका नाश करके संसारको सुख-शान्तिका सन्देश देने लगते हैं, तब उन्हें अरहन्तपरमेष्ठी कहने लगते हैं और जब वे अरहन्त. परमेष्ठी सर्व कर्मोंका नाश करके शुद्ध, वुद्ध, नित्य, निरंजन, निर्वि. कार अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें ही सिद्धपरमेष्ठी कहते .. हैं । इस प्रकार साधकको आत्म-चिन्तनके लिए पञ्चपरमेष्ठीकी उपा सना करनेका विशेषरूपसे विधान किया गया है और उसके लिए यहाँ तक कहा गया है कि यदि वह दिनमें एक बार भी अपनी आत्माका-या प्रकारान्तरसे पञ्चपरमेष्ठीका ध्यान या चिन्तवन नहीं करता है, तो वह सम्यग्दर्शनसे बहुत दूर है। .. . सम्यग्दृष्टि जीव जिन पञ्चपरमेष्ठियोंका सदा स्मरण करता है, उनके नामका जप और ध्यान करता है और जिनके आधार या आश्रयसे आत्मस्वरूपका साक्षात्कार करना चाहता है, उनके नाम का नमस्कारात्मक अनादि मूलमन्त्र इस प्रकार है णमो भरहताणं णमो सिद्धाणं णमो मायरियाणं । णमो उवझायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।।७२।। लोकमें विद्यमान अरहन्तोंको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आचार्योंको नमस्कार हो, ‘उपाध्यायोंको नमस्कार हो और सर्व अर्थात् प्राणिमात्रका हित चाहनेवाले. साधुओंको नमस्कार हो ॥७२॥ अरहन्तपरमेष्ठीका स्वरूप दिव्यौदारिकदेहस्थो धौतघातिचतुष्टयः। ...:. ज्ञानहग्वीर्यसौख्याढ्यः सोऽहन् धर्मोपदेशकः ॥७३॥ . . . .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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