SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय जो मूर्तिमान् शरीरसे मुक्त हैं, आठों कर्मोंसे रहित हैं, लोकके अग्रभागमें स्थित हैं, ज्ञानादि आठ गुणोंसे सम्पन्न हैं, और कर्म - मल-कलंकसे रहित होनेके कारण निष्कर्मा हैं, उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं ॥७७॥ ८८१ सिद्धोंके आठ गुण कृत्स्नकर्मक्षयाज्ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं पुनः । अत्यक्षं सुखमात्मोत्थं वीर्यञ्चेति चतुष्टयम् ॥ ७८ ॥৷ सम्यक्त्वं चैव सूक्ष्मत्वमव्याबाधगुणः स्वतः । अस्त्यगुरुलघुत्वं च सिद्धे चाष्टगुणाः स्मृताः ॥७६॥ सम्पूर्ण ज्ञानावरणीयकर्मके क्षय हो जाने से क्षायिक ज्ञान, समस्त दर्शनावरणीय कर्मके क्षय हो जानेसे क्षायिक दर्शन, समस्त मोहकर्म - के क्षय हो जानेसे अतीन्द्रिय क्षायिक सुख, समस्त अन्तरायकर्मके क्षय हो जानेसे आत्मोत्पन्न क्षायिक वीर्य, तथा क्षायिक सम्यक्त्व, सूक्ष्मत्व, अव्याबाध और अगुरुलघुत्व ये आठ मुख्य गुण सिद्धपरमेष्ठी में पाये जाते हैं ॥ ७८-७९ भावार्थ–वस्तुतः सिद्धपरमेष्ठीमें अनन्तगुण होते हैं, किन्तु आठ कर्मों के क्षयसे प्राप्त होनेके कारण इन गुणोंको प्रधानता दी गई है । आचार्य, उपाध्याय और साधुपरमेष्ठीका स्वरूप आचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधा मतः । स्युविशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जराः ॥८०॥ अर्हन्त, सिद्ध परमेष्ठीके अतिरिक्त आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन प्रकारके परमेष्ठी और भी होते हैं, यद्यपि बाह्यदृष्टि से ६ :
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy