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________________ ចធ ... जैनधर्मामृत प्रति दिन एक बार तो कमसे कम कुछ समय तक अनियतकालमें अपनी आत्माका ध्यान करता ही है। यदि वह ऐसा नहीं करता . है, तो वह सम्यग्दर्शनसे दूर है ||७१॥ भावार्थ-यद्यपि अविरतसम्यग्दृष्टि जीव कोई भी व्रत, नियम, शील-संयमादिका पालन नहीं करता है, तथापि वह दिनमें एक बार जब भी सांसारिक झंझटोंसे अवसर मिलता है, अपनी आत्माके स्वरूपका चिन्तवन करता ही है। आत्म-स्वरूपका चिन्तवन या ध्यान विना किसी आधारके या आदर्शके संभव नहीं है। अतएव पञ्चपरमेष्ठीक आदर्श मान करके उनके आधारसे आत्म-स्वरूपका चिन्तवन करता है । यही कारण है कि सम्यग्दर्शनके धारण करनेवाले पुरुषको 'पञ्चगुरुचरणशरणः' या 'परमेष्ठीपदैकधी' जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण किया गया है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचोंको वीतरागतारूप परमपदमें अवस्थित होनेके कारण पञ्चपरमेष्ठी कहते हैं। वस्तुतः ये पञ्चपरमेष्ठी क्या हैं ? आत्माकी क्रमसे विकसित अवस्थाओंके नाममात्र हैं। जब कोई जीव वहिरात्मापन छोड़कर अन्तरात्मा बन जाता है और अपनेको भव-बन्धनसे मुक्त करनेके लिए अन्तरङ्ग एवं बहिरङ्ग परिग्रहका त्याग करके संन्यासी बन जाता है, तब उसे साधु परमेष्ठी कहते हैं। जब वे ही साधुपरमेष्ठी विशिष्ट ज्ञानी वन जाते हैं और स्वयं अध्ययन करते हुए दूसरे साधुओंको शास्त्र पढ़ाने लगते हैं, तब उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। जब वे ही पठनपाठन करनेवाले उपाध्याय संघके अधिपति बनकर संघको सदाचारका पाठ पढ़ाने लगते हैं, तब उन्हें आचार्यपरमेष्ठी कहने लगते हैं।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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