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________________ अध्याय 100 .. . द्वितीय अध्याय सम्यग्दर्शन, . ८. अर्थसम्यग्दर्शन, ९ अवगाढसम्यग्दर्शन और १० परमावगाढसम्यग्दर्शन ॥७०॥ विशेषार्थ-शास्त्राभ्यासके विना केवल वीतराग जिनेन्द्रदेवकी आज्ञासे ही जो तत्त्वोंपर विशिष्ट रुचि उत्पन्न होती है, उसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्वघातक मोहकर्मके उपशान्त होनेसे शास्त्राध्ययनके विना ही बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहसे रहित कल्याणकारक मोक्षमार्गका श्रद्धान करना मार्गसम्यक्त्व है। तीर्थङ्करादि महापुरुषोंके उपदेश सुननेसे जो समीचीन दृष्टि उत्पन्न होती है उसे उपदेशसम्यक्त्व कहते हैं। मुनियोंके आचारको प्रकट करनेवाले आचारागसूत्रको सुनकर जो श्रद्धान हो, वह सूत्रसम्यग्दर्शन है। गहन और विशाल अर्थक बोधक बीजपदोंसे जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो, वह बीजसम्यग्दर्शन है। जीवादि पदार्थोंको संक्षेपसे ही जान कर जो साधु दृष्टि उत्पन्न होती है, वह संक्षेपसम्यग्दर्शन है। सम्पूर्ण, द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञानको सुनकर जो सम्यग्दर्शन होता है उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते हैं। पामागमके विना ही जिस किसी पदार्थके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनको अर्थसम्यग्दर्शन कहते हैं । अंगवाह्य और अंगप्रविष्टरूप द्वादशांग श्रुतज्ञानके अवगाहनसे : उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शनको अवगाढसम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञानके द्वारा अवलोकित अर्थमें जो परम दृढ़ श्रद्धान होता है वह परमावगाढसम्यग्दर्शन है। . . . . . . . .. .. असंयतो निजात्मानमेकवारं दिन प्रति । ... ध्यायत्यनियतं कालं नो चेत्सम्यक्त्वदूरगः ॥७॥ .: व्रत-संयमसे रहित भी अविरत या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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