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________________ ७६ जैनधर्मामृत धारण करनेके नहीं होते हैं । प्रत्याख्यानावरण कपायके उदयसे मुनिधर्मको धारण करनेके भाव नहीं होते हैं। तथा संज्वलन कषायके उदयसे जीवका यथार्थ स्वरूप नहीं प्रकट होने पाता | दर्शनमोहनीय कर्मके तीन भेद हैं—मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति । दर्शन मोहनीयके इन तीनों भेदोंमेंसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायोंका जब जीवके क्षयोपशम हो और सम्यक्प्रकृतिका उदय हो, उस समय जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम या वेदकसम्यक्त्व कहते हैं । इस सम्यग्दर्शनवाले जीवके परिणाम यद्यपि तत्त्वार्थश्रद्धान पर दृढ़ रहते हैं, तथापि सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे उसमें कुछ चंचलता बनी रहती है, क्वचित् कदाचित् शंकादि दोष भी उठते हैं । किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन को छोड़कर संसारी जीवोंके अधिक समय तक स्थिर रहनेवाला यही सम्यग्दर्शन है । उक्त तीनों ही सम्यग्दर्शनोंका - अन्तरंग कारण तो दर्शनमोहनीयादि कर्मोंका उपशम, क्षय और क्षयोपशम ही है किन्तु वहिरंगमें प्रवेदना, पूर्वभवका स्मरण, धर्मश्रवण, जिन-बिम्बदर्शनादि यथासंभव निमित्त पाकर सम्यग्दर्शन प्रकट होता है । सम्यग्दर्शन के दश भेद आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढपरमावगाढे च ॥७०॥ सम्यग्दर्शनके विस्तृत-कथन की अपेक्षा दश भेद माने गये हैं १ आज्ञासम्यग्दर्शन, २ मार्गसम्यग्दर्शन, ३ उपदेशसम्यग्दर्शन, ४ सूत्रसम्यग्दर्शन, ५ वीजसम्यग्दर्शन, ६ संक्षेपसम्यग्दर्शन, ७ विस्तार -M
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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