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________________ ! द्वितीय अध्याय ७५ तदनन्तर यह जीव कुछ विशिष्ट पुरुषार्थ करता है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, जो कि एक बहुत लम्बे समय तक अर्थात् अनुकूल सामग्री बने रहने तक बना रहता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका स्वरूप क्षीणोदयेषु मिथ्यात्व मिश्रानन्तानुबन्धिषु । लब्धोदये च सम्यक्त्वे क्षायोपशमिकं भवेत् ॥ ६६ ॥ , मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन छह कर्मोंके क्षयोपशम होने पर तथा सम्यक्त्व - प्रकृतिके उदय होने पर जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे क्षायोपशमिक कहते हैं ॥६९॥ विशेषार्थ - आगे कर्मोंके आठ भेद बतलाये गये हैं, उनमें सबसे प्रधान कर्म मोहनीय हैं । इसे कर्मों का सम्राट कहा जाता 1 इसके मूलमें दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय | दर्शन मोहनीय कर्म आत्माके सम्यग्दर्शनगुणका और चारित्रमोहनीय कर्म आत्मा के चारित्रगुणका घात करता है । चारित्रमोहनीय कर्मके भी दो भेद हैं- कषाय वेदनीय और नोकषायवेदनीय । कषाय वेदनीयके सोलह भेद हैं । जो इस प्रकार हैं-- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाय भी दर्शनमोहनीयके साथ जीवके सम्यग्दर्शन गुणको प्रकट नहीं होने देते हैं । अप्रत्याख्यानाचरण क्रोध मान, माया, लोभके उदयसे जीव भाव गृहस्थधर्मको
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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