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________________ ७७ . : जैनधर्मामृत सो अनुकम्पा है। इसी अनुकम्पाको धर्मका मूल माना गया है। सम्यग्दृष्टि पुरुषमें यह अनुकम्पा गुण नियमसे जागृत हो जाता है। ४. आस्तिक्यगुण आप्ते श्रुतिव्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंयुतम् । ... आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे ॥६०।। आप्तमें,आगममें, व्रतमें, तत्त्वमें और मोक्षमार्गके धारक पुरुषके विषयमें अस्तित्वसे संयुक्त मतिके होनेको आस्तिक पुरुषोंने आस्तिक्यगुण कहा है ॥६०॥ भावार्थ-जिसे यह दृढ़ विश्वास हो जाय कि जीव, अंजीवादि सात तत्त्व हैं, अपने भले-बुरे कर्म-फलको यह जीव ही भोगता है, इहलोक, परलोक आदि हैं और उनमें अपने कृत कर्मानुसार ही जीव जाता-आता है, इस प्रकारकी आस्तिकवुद्धिको आस्तिक्यगुण माना गया है। उपर्युक्त चार गुणोंसे युक्त दशवें गुणस्थान तकके सरागी जीवोंके जो सम्यग्दर्शन होता है उसे सराग सम्यक्त्व कहते हैं । इस सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जानेके पश्चात् आत्मामें निरन्तर निर्मलताका विकास होने लगता है, और जब वह निर्मलता अपनी चरम सीमाको. पहुँच जाती है, उस समय आत्मामें वीतराग भावके साथ जो विशुद्धि जागृत होती है, उसे वीतरागसम्यक्त्व कहते हैं। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर ऊपरके सर्व गुणस्थानवर्ती जीवोंका सम्यग्दर्शन वीतराग सम्यक्त्व कहलाता है। ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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