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________________ द्वितीय अध्याय 'सम्यग्दर्शन के तीन भेद. कर्मणां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमतस्तथा । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं गतौ सर्वत्र जन्तुषु ॥ ६१॥ः ७१ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा दर्शन मोहनीय इन कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायिकसम्यग्दर्शन, उपशमसे होनेवाले सम्यक्त्वको औपशमिकसम्यग्दर्शन और क्षयोपशुमसे उत्पन्न होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन कहते हैं । इस प्रकार 'सम्यग्दर्शनके तीन भेद जानना चाहिए | ये तीनों ही प्रकार के सम्यग्दर्शन चारों गतियों में यथासंभव सर्व प्राणियों में पाये जाते हैं ॥ ६१ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि तीनों ही सम्यक्त्व चारों गतियों में पाये जाते हैं पर इतना विशेष जानना चाहिए कि क्षायिकसम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति केवल मनुष्यगतिमें ही होती है। हाँ, इतना विशेष जानना चाहिए कि यदि उसने क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्तिके पूर्व मिथ्यात्व - दशामें नरक या तिर्यंचकी आयु बाँध ली है, तो उन गतियों में भी उत्पन्न हो सकता है, और इस प्रकार चारों गतियों में क्षायिकसम्यक्त्वका अस्तित्व पाया जाता है । क्षायिकसम्यक्त्वका स्वरूप इग्मोहत्तयसंभूतौ यच्छ्रद्धानमनुत्तरम् ! भवेत्तत्क्षायिकं नित्यं कर्मसंघातघातकम् ॥६२॥ नानावाग्भिर्वहुपायैर्भीष्मरूपैश्च दुर्धरैः । त्रिदशाद्यैर्न चाल्येत तत्सम्यक्त्वं कदाचन ॥६३॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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