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________________ ५८॥ द्वितीय अध्याय .. २. संवेगगुण .. शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्यात् । स्वप्नेन्द्रजालसङ्कल्पानीतिः संवेगमुच्यते ॥५॥ शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक वेदनाओंसे उत्पन्न हुए, स्वप्न या इन्द्रजालके सदृश भयसे जो भीति उत्पन्न होती है, उसे संवेग कहते हैं ॥५॥ .... भावार्थ-इस गुणके उत्पन्न हो जाने पर सम्यग्दृष्टि जीवके समस्त सांसारिक पदार्थों में अनासक्ति जागृत हो जाती है और इसी कारण सम्यग्दृष्टि पुरुष सांसारिक भोगोंमें आसक्त नहीं होता, उसे इस बातका दृढ़ विश्वास हो जाता है कि सांसारिक पदार्थांका समागम स्वप्न या इन्द्रजालके तुल्य क्षण-भंगुर है अतः वह निरन्तर अनासक्त होकर ही अपने लौकिक व्यवहारको चलाता है। ३. अनुकम्पा गुण सत्वे सर्वत्र चित्तस्य दयावं दयालवः । - धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥५६॥ .. सर्व प्राणिमात्रपर चित्त दयार्द्र होनेको अनुकम्पा कहते हैं। दयालु पुरुषोंने धर्मका परम मूल कारण अनुकम्पा ( दया ) को कहा है ॥५६॥ ; भावार्थ रोगी, शोकी या दुखी प्राणी - जिस प्रकार अपने दुःखका अनुभव करता है, उसे देखकर तदनुकूल दुःखका संवेदन करना, उसके दुःखको दूर करनेका विचार करना, प्रतीकार करना,
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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