SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ .. जैनधर्मामृत . दर्शनके दो भेद, तीन भेद और दश भेद कहे हैं, तथापि उन सब भेदोंमें तत्त्व-श्रद्धानका विधान समान रूपसे बतलाया गया है ।५५॥ भावार्थ-यद्यपि निश्चयसे आत्मश्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शन एक रूप ही है, तथापि भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे आचार्योंने उसके दो, तीन और दश भेद भी किये हैं, जिनका वर्णन आगे किया जायगा। यहाँ इतना ज्ञातव्य है कि इन सब भेदोंमें तत्त्वोंका श्रद्धान या आत्म-दर्शन समान रूपसे आवश्यक माना गया है। . सम्यग्दर्शनके दो भेद सराग-वीतरागात्मविषयत्वाद् द्विधा स्मृतम् । प्रशमादिगुणं पूर्व परं चात्मविशुद्धिभाक् ॥५६॥ . सराग और वीतराग आत्माको विषय करनेसे सम्यग्दर्शन दो प्रकारका माना गया है, अर्थात् एक 'सरागसम्यक्त्व और दूसरा वीतरागसम्यक्त्व । जो सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चारों गुणोंके साथ व्यक्त होता है, उसे सराग सम्यक्त्व कहते हैं और जो केवल आत्माकी निर्मल विशुद्धिको धारण करता है, उसे वीतरागसम्यक्त्व कहते हैं ॥५६॥ . १. प्रशम गुण यद्रागादिपु दोपेषु चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तव्रतभूपणम् ॥५७॥ राग, द्वेष, क्रोध, मान, मोया, मोह, लोभ आदिक दोषोंमेंचित्तकी वृत्तिके शान्त हो जानेको प्रशम कहते हैं। इस गुणको विद्वानोंने समस्त व्रतोंका आभूषण कहा है, क्योंकि मनोवृत्तिके शान्त हुए विना व्रत, तप, संयम आदि सब निप्फल माना गया है ॥५७||
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy