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________________ द्वितीय अध्याय वाली है। यही कारण है कि आचार्योंने जाति कुलादिके मद करने को अज्ञान कहा है। इतना ही नहीं, जो गर्व करता है, वह अपने ही धर्मका अपमान करता है। आगे इसी बातका उपदेश करते हैं। ...: स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः। . .. .... सोऽन्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ॥५३॥ . .. जो पुरुष अभिमान युक्त होकर गर्वके द्वारा अन्य धर्मात्मा .. जनोंका अपमान करता है, वह अपने ही धर्मका अपमान करता है, क्योंकि, धर्म धर्मात्माओंके विना नहीं रह सकता है ॥५३॥ . छः अनायतन . कुदेवः कुमतालम्बी कुशास्त्रं कुत्सितं तपः । कुशास्त्रज्ञः कुलिङ्गीति स्युरनायतनानि पट ॥५४॥ . __ कुदेव, कुमतका आलम्बन करने वाला सेवक, कुशास्त्र, कुतप, कुशास्त्रज्ञ और कुलिङ्ग ये छह अनायतन हैं ॥५४॥ . - . भावार्थ-जो धर्मके आधार नहीं हैं, उन्हें अनायतन कहते हैं। इन छह अनायतनोंके सेवनसे मिथ्यात्वं ही बढ़ता है; जीवका : कोई भी सच्चा प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके विधातक २५ दोषोंका निरूपण कर और उनके त्यागनेका उपदेश देकर अब सम्यग्दर्शनके भेदोंका वर्णन करते है- . . . . . . . . . . .... द्विविधं त्रिविधं दशविधमाहुः सम्यक्त्वमात्महितमतयः। , ... तत्त्वश्रद्धानविधिः सर्वत्र च तत्र समवृत्तिः ॥५५॥ .. : :आत्माके हितमें जिनकी बुद्धि संलग्न है, ऐसे महर्षियोंने सम्यग-.
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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