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________________ ६:६ जैनधर्मामृत दिया । जिससे खिन्न होकर भद्रबाहु श्रुतकेवलीने उन्हें आगेके पूर्वोका पढ़ाना बन्द कर दिया और इस प्रकार श्रुतज्ञानकी परम्परा का विच्छेद हो गया । इन सब घटनाओंको सुनकर कौन बुद्धिमान् श्रुतका मद करेगा | मद करनेका फल जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद् भवति दुःखितश्चेह' । जात्यादिहीनतां परभवे च निःसंशयं लभते ॥५१॥ परपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षाच्च वध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभयमनेकभवको टिदुर्मोचम् ॥५२॥ जाति कुलादिके मदसे उन्मत्त हुआ मनुष्य इस भवमें पिशाचके समान दुःखी होता है और परभवमें नियमसे जाति और कुलादिकी हीनताको प्राप्त होता है, अर्थात् नीच जाति और नीच कुलादिमें जन्म पाता है । दूसरेका तिरस्कार और निन्दा करनेसे, तथा अपनी प्रशंसा और अभिमान करनेसे सदा भयको देनेवाला और अनेक कोटि भवों तक भी नहीं छूटनेवाला ऐसा निन्द्य-नीचगोत्र कर्म बँधता है ॥५१-५२॥ भावार्थ - सांसारिक ऐश्वर्य, उत्तम जाति और कुलादिकी प्राप्ति कर्मके आधीन है । आज जो अपने उच्च कुलीन होनेका मद करता है, वही आगामी भवमें नीच कुलमें जन्म लेता देखा जाता है । आज जो अपने ज्ञान या धन-वैभवादिका मद करता है वही कल अज्ञानी और दरिद्र - भिखारी बना दृष्टिगोचर होता है, अतः इन विनश्वर वस्तुओंका क्या गर्व करना ? गर्व तो उस वस्तुका करना चाहिए जो कि अपनी है और सदा काल अपने पास रहने -
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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