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________________ जैनधर्मामृत हैं और विश्वहितके साधक हैं। इनके द्वारा बतलाया गया ज्ञान, . दर्शनमयी चैतन्यरूप ही मेरा आत्मा है, जो कि अनादि-निधन है। मैं अपने भले-बुरे कार्यासे ही संसारमें सुख-दुःख उठाता हुआ भ्रमण कर रहा हूँ, मेरेको सुख-दुख देनेवाला अन्य कोई नहीं है, किन्तु मेरा ही पूर्वोपार्जित कर्म मुझे सुख-दुख देता है। अतएवं बुरे कार्योंको छोड़ कर अब मुझे सत्कार्य करते हुए सन्मार्ग पर चलना चाहिए। इस प्रकार आत्मामें दृढ़ श्रद्धानके होनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं। .. पूर्ण सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिए उसके आठों अंगोंका धारण करना अत्यन्त आवश्यक है, अतएव उनका क्रमशः वर्णन करते हैं । १ निःशंकित-अंग इदमेवेदृशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा। इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥८॥ सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलः। किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शंकेति कर्तव्या ॥६॥ तत्वोंका जैसा स्वरूप जिन भगवान्ने कहा है, वह यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं और न अन्य प्रकार हो सकता है इस प्रकार सन्मार्गमें खड्ग पर चढ़ाये गये लोहेके पानीके समान संशय-रहित निश्चल रूचि या श्रद्धान करना, सो निशंकित अंग कहलाता है। सर्वज्ञ भगवान्ने इस समस्त वस्तु-समूहको अनेक धर्मात्मक अर्थात् उत्पाद व्यय ध्रौव्य आदि अनन्त धर्मोवाला कहा है, सो क्या यह सत्य है, अथवा नहीं, इस प्रकारकी शंका कदाचित् भी नहीं करनी चाहिए। ॥८-९||
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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