SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५ द्वितीय अध्याय - ... सिद्ध है । अतएव वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी प्रशम-मूर्ति . जिनेन्द्र देव ही सत्यार्थ आप्त* हैं। .. . आगमका स्वरूप आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । .. . .. तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥६॥ ... जो आप्तके द्वारा कहा गया हो, वादि-प्रतिवादियोंके द्वारा ... अनुल्लंध्य हो, प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे जिसमें किसी प्रकारका विरोध न आता हो, अर्थात् पूर्वापर विरोधसे रहित हो, सच्चे और आत्मोपयोगी तत्त्वोंका उपदेश करनेवाला हो, सर्व प्राणियोंके हितका प्रतिपादक हो और कुमार्ग या मिथ्यामार्गका नाश करनेवाला हो, - उसे सच्चा शास्त्र या आगम कहते हैं ॥६॥ :. गुरुका स्वरूप . विपयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। . . . ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥७॥ - जो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंकी आशा-तृप्णाके वशंगत न हो, .. सर्व आरम्भसे रहित हो, अपरिग्रही हो, सदा ज्ञान, ध्यान और तपमें निरत रहता हो, वही तपस्वी सच्चा गुरु कहलाता है ॥७॥ - विशेषार्थ---उपर्युक्त स्वरूपवाले देव, शास्त्र और गुरु की दृढ़ प्रतीति होनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं। दृढ़ प्रतीतिका भाव यह . है कि ये तीनों ही मेरे आत्माके उद्धारक हैं, सच्चे मार्गके उपदेशक ... * आप्तस्वरूपके विशेष निर्णयके लिए देखिए-आप्तमीमांसा, आत्मपरीक्षा, आत्मस्वरूप और अकलंकस्तोत्र आदि ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy