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________________ द्वितीय अध्याय ४७ . ___ भावार्थ-इस अंगका अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिए कि जैनधर्ममें जिज्ञासारूप शंकाकी मनाई की गई है, क्योंकि यह धर्म परीक्षा-प्रधान है। किन्तु जो अतीन्द्रिय और सूक्ष्म तत्त्व हमारे ज्ञानके परे हैं, उनमें शंकाकी मनाई की गई है। जिन तत्त्वोंकी हम परीक्षा कर सकते हैं, उनकी तो परीक्षा करनी ही चाहिए। . २ निःकांक्षित-अंग कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पापवीजे सुखेऽनास्था अदानाकाङ्क्षणा स्मृता ॥१०॥ इह जन्मनि विभवादीनमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । . एकान्तवाददूपितपरसमयानपि च नाकाङ्क्षत् ॥११॥ सांसारिक सुख कर्मके परवश है, अन्त करके सहित है, शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे जिसका उदय व्याप्त है जिसके पश्चात् नियमसे दुःखकी प्राप्ति होती है और पापका वीज है, ..... ऐसे सुखकी आस्था या आकांक्षा नहीं करना निःकांक्षित अंग है। सम्यग्दृष्टि पुरुषको चाहिए कि इस जन्ममें लौकिक ': विभूति, पद, सम्पत्ति, सन्तति आदिकी और परभवमें चक्रवर्ती, नारायणं, बलभद्र, इन्द्र, अहमिन्द्र आदि होनेकी आकांक्षा न करे । तथा एकान्तवादसे दूषित पर-सिद्धान्तोंकी भी चाह न करें और सांसारिक. वैभवोंकी इच्छा न करे। इसे ही निःकांक्षित अंग - कहते हैं ॥१०-११॥ ...... .. ३ निर्विचिकित्सा-अंग .. . स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥१२॥ . . .:.
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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