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________________ जैनधर्मामृत विशेपार्थ-सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान आगमके अन्तर्गत आ जाता . है, इसलिए 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन' वाला लक्षण भी इसीके अन्तर्गत जानना चाहिए । सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिए सप्त तत्त्वोंका ज्ञान वा श्रद्धान अत्यन्त आवश्यक है। जीवोऽजीवास्रवौ वन्धः संवरो निर्जरा तथा । मोक्षश्च सप्त तत्त्वार्थाः मोक्षमार्गेपिणामिमे ॥४॥ . जीव, अजीव, आस्रव, वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात यथार्थ तत्त्व कहलाते हैं, जिनका कि यथार्थ श्रद्धान और ज्ञान मोक्षमार्गके चाहनेवालोंके लिए अत्यन्त आवश्यक है ॥४॥ क्रमानुसार पहले जीवादि सातों तत्त्वोंका स्वरूप कहना चाहिए था, किन्तु उनका विस्तृत विवेचन आगे पृथक् पृथक् अध्यायोंमें किया गया है, इसलिए यहाँ पहले आप्तका स्वरूप कहते हैं आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। - भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥ जो राग-द्वेषादि दोषोंसे रहित वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, आगमका ईश अर्थात् हितोपदेशी हो, वही नियमसे आप्त अर्थात् सच्चा देव हो सकता है। अन्यथा इन तीन गुणों से किसी एकके विना आप्तपना संभव नहीं है ।।५।। ___ भावार्थ-अन्य मतावलम्बियों द्वारा कल्पना किये गये विविध वेषके धारक रागी, द्वेषी और असर्वज्ञ व्यक्ति सच्चे देव कहलानेके योग्य नहीं हैं, यह बात उक्त तीन असाधारण विशेषणोंके देनेसे ही
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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