SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय धर्मका लक्षण यस्मादभ्युदयः पुंसां निःश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायास्तं धर्म धर्मसूरयः ॥१॥ ... जिसके द्वारा प्राणियोंको स्वर्गादि-सम्पत्तिस्वरूप अभ्युदयकी और निश्रेयसरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है, अर्थात् जो प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे निकालकर उत्तम सुखमें पहुँचाता है, आम्नायके ज्ञाता धर्माचार्योंने उसे धर्म कहा है ॥१॥ . सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । - यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥२॥ धर्मका प्रतिपादन करनेवाले जिनभगवान्ने उस धर्मको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप कहा है। इन तीनोंके प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण हैं ॥२॥ भावार्थ-धर्म सम्यग्दर्शनादिरूप है और अधर्म मिथ्यादर्शनादिरूप है । इनका विस्तृत विवेचन आगे यथास्थान किया जायगा । . श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥३॥ . परमार्थस्वरूप अर्थात् सच्चे आप्त, आगम और . गुरुका तीन मूढ़ता-रहित, आठ मद-रहित और आठ अंग-सहित श्रद्धान करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥३॥ । .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy