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________________ ૪૨ जैनधर्मामृत पुनः सम्यग्दर्शनके प्रकट होनेके साथ ही आत्मामें प्रकट होने वाले प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणोंके स्वरूपका निरूपण कर अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच परमेष्ठियोंका स्वरूप बतलाया गया है। पुनः सम्यग्दर्शनकी महिमा बतलाते हुए कहा गया है कि सम्यक्त्वी जीव मरकर नरकमें नहीं जाता, तिर्यचोंमें नहीं उत्पन्न होता । यदि आयु-वन्धके पूर्व नरक या तिथंच गतिकी आयु बंध गई हो, तो पहले नरकसे नीचे नहीं जायेगा, और तिर्यंचोंमें भी कर्मभूमियाँ तियचोंमें न उत्पन्न होकर भोगभूमियाँ तिर्यंचोंमें उत्पन्न होगा, जहाँपर कि उसे किसी प्रकारका कष्ट नहीं होता है। मनुष्योंमें यदि उत्पन्न होगा तो नीच, दरिद्र, अल्पायु और विकलांग नहीं होगा, किन्तु उच्चकुलीन, समृद्ध, तेजस्वी और दीर्घायु पुरुषोंमें ही जन्म लेगा। यदि देवों में उत्पन्न होगा, तो इन्द्र, अहमिन्द्रादि उच्च पदवीका धारक होगा । चक्रवर्ती और तीर्थकर जैसे महान् पद भी इसी सम्यग्दर्शनके प्रभावसे प्राप्त होते हैं और अन्तमें निर्वाणका अक्षय, अन्यावाध अनन्त सुख भी इसोके प्रसादसे प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्यको चाहिए कि सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेका प्रयत्न करे।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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