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________________ • द्वितीय अध्याय : संक्षिप्त सार . ... प्रथम अध्यायमें जिस सकल परमात्माका स्वरूप बतलाया गया है, उसे ही 'जिन' कहते हैं । उस जिन भगवान्ने संसारके :: प्राणियोंके उद्धारके लिए जिस धर्मका उपदेश दिया है, उसे 'जिनधर्म' या 'जैनधर्म' कहते हैं। जिन यह किसी व्यक्ति-विशेषका नाम नहीं है, किन्तु यह एक पद है जो साधकको अपनी आत्मिक उन्नति करने पर, विषय-कषायोंके जीतने और कर्म-शत्रुओंके नाश करने पर उसे प्राप्त होता है। अनादि कालसे आज तक अनन्त जिन हो गये हैं और आगे भी होंगे । प्रत्येक जिन अपने समयमें इसी आत्म-धर्मका उपदेश देते हैं । इस धर्मकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अन्य धर्मों के समान इसने प्राणियोंको स्वर्ग या नरक लेजाने का अधिकार किसी ईश्वरके हाथमें नहीं सौंपा है, किन्तु यह बताया है कि स्वर्ग या नरक जानेकी कुंजी प्रत्येक व्यक्तिके हाथमें हैं। वह उत्तम कार्य करनेसे सुख पाता है और बुरे कार्य करनेसे दुःख भोगता है। इस अध्यायमें धर्मका स्वरूप बतला करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको धर्म कहा गया है। तत्पश्चात् सम्यग्दर्शन क्या वस्तु है, उसके कितने अंग हैं और कितने भेद हैं, इसका साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। साथ ही सम्यग्दर्शनके ... २५ दोषोंका विवेचन कर उनके छोड़नेका विधान किया गया है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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