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________________ जैनधर्मामृत ‘श्रमितगति-श्रावकाचार’के नामसे ही प्रसिद्ध है । अपने पूर्ववर्ती श्रावकाचारोंको आधार बनाकर या आश्रय लेकर बिलकुल स्वतंत्र रूपसे इन्होंने अपने विस्तृत श्रावकाचारका निर्माण किया है । इसके २५ अध्याय हैं उनका विषय और श्लोक संख्या इस प्रकार है १८ श्लोक-संख्या ७२ १० ८६ ६८ ४. आत्माके अस्तित्वको सिद्धि और सम्यग्ज्ञानका वर्णन ५. श्रष्टमूल गुण और रात्रि भोजन के दोषादिका निरूपण ६. बारह व्रतोंका और सल्लेखनाका निरूपण ७४ १०० કર ७. उनके व्रतोंके अतिचार और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन ८. सामायिकादि छह श्रावश्यक और उनके दोषादिका वर्णन १०६ ६. दान, पूजा, शील और उपवासका विस्तृत वर्णन १०६ पात्रका वितृत वर्णन ७४ १०. पात्र, कुपात्र और ११. पात्र, कुपात्र और पात्रको दान देनेका फल वर्णन १२. जिनपूजा, द्यूतादि सप्तव्यसन, मौन श्रादिका वर्णन १३. सप्त प्रकारके श्रावक, वैयावृत्त्य और स्वाध्यायादि वर्णन अध्याय १. धर्मका सामान्य स्वरूप और उसका फल-वर्णन २. मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका स्वरूप और उसके भेद - फलादि ३. सम्यग्दर्शन और सप्ततत्त्वका वर्णन १२६ १३६ १०१ ८४ १४. बारह भावनाओंका विस्तृत वर्णन ११४ १५. ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान -फलका विस्तृत वर्णन अमितगति के इस श्रावकाचारसे जैनधर्मामृतके दूसरे अध्याय में ३ श्लोक संकलित किये गये हैं । ग्रा० श्रमितगतिने उपर्युक्त दो ग्रन्थों के अतिरिक्त सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा, भगवती श्राराधनाका पल्लवित सं० पद्यानुवाद, और भावना द्वात्रिंशतिकाकी भी रचना की है और ये सब ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । इनके अतिरिक्त नम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सार्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति और
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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