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________________ ग्रन्थं और ग्रन्थकार-परिचय । उपर्युक्त दोनों ग्रन्थोंका प्रकाशन उनके हिन्दी अनुवादके साथ अनेक संस्थाओंसे हो चुका है। समयसार कलशका प्रकाशन पं० राजमल्लकी प्राचीन हिन्दी. वचनिकाके साथ बहुत पहले ब्र० शीतल प्रसादजीके द्वारा सम्पादित होकर जैन विजय प्रिंटिंग प्रेस सूरतसे हुआ है और जो उस समय जैनमित्रके ग्राहकोंको उपहार स्वरूप भी भेंट किया गया था। हमने जैन धर्मामृतमें उक्त दोनों ग्रन्थोंका उपयोग सनातन ग्रन्थमालाके सप्तम गुच्छकसे किया है। . ८. अमितगति और सं० पंचसंग्रह, अमितगति-श्रावकाचार प्राकृत पंचसंग्रहको आधार बनाकर उसे पल्लवित करते हुए श्रा० अमितगतिने अपने संस्कृत पंचसंग्रहकी रचना की है। मूलग्रन्थके समान इस ग्रन्थमें भी उसी नामवाले पाँच अध्याय हैं, जिनमेंसे प्रथम अध्यायमें २० प्ररूपणाओंके द्वारा जीवोंका और शेष अध्यायोंमें कर्मोंको विविध अवस्थात्रोंका चौदह मार्गणाओंके द्वारा वर्णन किया गया है। उन अध्यायों के नाम और उनकी श्लोक-संख्या इस प्रकार है १. जीवसमास श्लोक संख्या ३५३ २. प्रकृतिस्तव . . ४८ ३. बन्धस्तव . , १०६ ४. शतक , ३७५ ५. सप्ततिका , . ४८४ उक्त श्लोक-संख्याके अतिरिक्त पाँचों ही अध्यायोंमें लगभग ५०० श्लोक-प्रमाण गद्य भाग भी है और बीच-बीचमें मूलके अर्थको स्पष्ट करनेवाली अनेकों अंक-संदृष्टियाँ भी हैं । इस ग्रन्थसे जैनधर्मामृतके दूसरे, छठे, सातवें, और दसवें अध्यायमें गुणस्थानोंके स्वरूपवाले २३ श्लोक संगृहीत किये गये हैं। प्रा० अमितगतिने एक श्रावकाचार भी रचा है, जो उनके नामपर 22 2
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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