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________________ जैनधर्मामृत __ अनुक्त एवं सूचित किये गये अर्थके उपसंहारात्मक जिन अनेकों पद्योंकी विभिन्न छन्दोंमें रचना की है, वे समयसारकलश या नाटक समयसार कलशके नामसे प्रसिद्ध हैं। श्रा० अमृतचन्द्रने अपने किसी भी ग्रन्थमें गुरु परम्परादिका कोई भी परिचय नहीं दिया है। समयप्तारके अन्तिम कलशरूप पद्यमें केवल अपने नामका निर्देश किया है, किन्तु प्रथम दो ग्रन्थों में तो उतना भी कोई निर्देश नहीं किया, प्रत्युत लिखते हैं वर्णैः कृतानि चित्रेः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ।। -पुषार्थसिद्धियुपाय, श्लो० २२६ वर्णाः पदानां कर्त्तारो वाक्यानां तु पदावलिः । वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयम् ॥ -तत्त्वार्थसार, ६, २३ इन दोनों पद्योंमें आर्या और अनुष्टुप् श्लोकरूप छन्द-भेदको छोड़कर अर्थ-गत कोई भी भेद नहीं है | आ० अमृतचन्द्रकी इस निरीहता, वीतरागता और प्रसिद्धिसे सर्वथा विलग रहनेकी प्रवृत्ति सचमुच उनके नामके अनुरूप ही है। __ श्रा० अमृतचन्द्र के समय आदिके निर्णयके लिए हमारे पास यद्यपि समुचित साधन उपलब्ध नहीं हैं, तथापि थोड़ी बहुत जो सामग्री सामने आई है, उसके आधारपर कमसे-कम उनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी तो सिद्ध होता ही है। आ० जयसेनने अपने अन्य धर्मरत्नाकरमें अमृतचन्द्ररचित पुरुषार्थसिद्ध्युपायके लगभग ७० पद्य उद्धृत किये हैं और जयसेनने अपना यह ग्रन्थ वि० सं० १०५५ में बनाया है, ऐसा उसकी प्रशस्तिके अन्तिम श्लोकसे सिद्ध है। अतः इतना निश्चित है कि अमृतचन्द्र इससे पूर्व ही हुए हैं। कितने पूर्व हुए, इसके निर्णयके लिए, हमारे सामने अभी कोई आधार नहीं है ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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