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________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार-परिचय १५ ७. अमृतचन्द्र और तत्त्वार्थसार एवं पुरुषार्थसिद्धयुपाय तत्त्वार्थसार-दि० और श्वे० सम्प्रदायमें समानरूपसे माने जानेवाले तत्त्वार्थसूत्रको आधार बनाकर उसे पल्लवित करते हुए यद्यपि प्रा० अमृतचन्द्रने लगभग ७५० श्लोकोंमें इस ग्रन्थकी रचना की है, तथापि अध्यायोंका वर्गीकरण उन्होंने स्वतन्त्र रूपसे किया है । अर्थात् तत्त्वार्थसूत्रके समान तत्त्वार्थसारके १० अध्याय न रखकर केवल ६ अध्याय रखे हैं, जिसमेंसे पहला अध्याय सप्ततत्वोंकी पीठिका या उत्थानिकारूप है और अन्तिम अध्याय उपसंहाररूप है। बीचके सात अध्यायोंमें क्रमशः सातों तत्त्वोंका बहुत ही सुन्दर, सुगम और सुस्पष्ट वर्णन किया है । जैनधर्मामृतके सातवें अध्यायसे लेकर तेरहवें अध्याय तकके सर्व-श्लोक इसी तत्त्वार्थसारसे लिये गये हैं। ... पुरुषार्थसिद्धयुपाय-मनुष्यका वास्तविक पुरुषार्थ क्या है और उसकी सिद्धि किस उपायसे होती है, इस बातका बहुत ही तलस्पर्शी वर्णन आ० अमृतचन्द्रने इस ग्रन्थमें किया है । यह उनकी स्वतन्त्र कृति है और उसे उन्होंने अपने महान् पुरुषार्थके द्वारा अगाध जैनागम-महोदधिका मन्थन करके अमृत रूपसे जो कुछ प्राप्त किया, उसे इस ग्रन्थमें अपनी अत्यन्त मनोहारिणी,सरल, सुन्दर एवं प्रसाद गुणवाली भाषामें सञ्चित कर दिया है । हिंसा क्या है और अहिंसा किसे कहते हैं इसका विविध दृष्टिकोणोंसे बहुत ही सजीव वर्णन इस ग्रन्थमें किया गया है। इसमें अध्याय विभाग नहीं है। समग्र ग्रन्थकी पद्य संख्या २२६ है। जैनधर्मामृतके दूसरे और चौथे अध्यायमें ८७ श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपायसे संगृहीत किये गये हैं। इन दोनों ग्रन्थोंके अतिरिक्त आ० कुन्दकुन्दके अध्यात्म ग्रन्थ समयसार, पञ्चास्तिकाय और प्रवचनसारपर भी ग्रा० अमृतचन्द्रने संस्कृत टीका रची है । समयसारकी टीकाके बीच-बीचमें मूलगाथाके द्वारा उक्त,
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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