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________________ ३४ जैनधर्मामृत. नीतिका प्रतिपादक 'नीतिवाक्यामृत' ये दो ग्रन्थ और भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अतिरिक्त नीतिवाक्यामृतको प्रशस्तिसे पता चलता है कि उन्होंने १ युक्तिचिन्तामणिस्तव, २ त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्य, ३ षण्णवतिप्रकरण और ४ स्याद्वादोपनिषत् नामक चार ग्रन्थोंकी और भी रचना की है। हमारा दुर्भाग्य है कि चारों हो ग्रन्थ अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। यदि ये सभी ग्रन्थ उपलब्ध हो जावें, तो सोमदेवकी अगाध विद्वत्ताका हम लोगोंको यथार्थ परिचय मिल सके। फिर भी उनकी विद्वत्ताका बहुत कुछ आभास इन अप्राप्त ग्रन्थोंके नामोंसे हो जाता है । यशस्तिलकचम्पूमें महाराज यशोधरके चरित्रका चित्रण आठ . आश्वासोंमें किया गया है । जिनमेंसे पहलेमें कथावतार, दूसरेमें यशोधर को राज्यतिलक, तीसरेमें राज्यलक्ष्मी विनोद, चौथेमें महारानी अमृतमतीका दुर्विलास, पाँचवेंमें भव-भ्रमण, छठेमें अपवर्ग-मार्ग, सातवेंमें सम्यग्ज्ञान और देशचारित्रके पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रत, तथा आठवें में चार शिक्षाव्रत और उपासक-सम्बन्धी कुछ विशिष्ट कर्त्तव्योंका वर्णन किया गया है । ग्रन्थकारने अन्तिम आश्वासमें श्रावकके आचारका एक विशिष्ट ही ढंगसे वर्णन किया है, जो कि उसके पूर्ववर्ती ग्रन्थोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता। यह ग्रन्थ शक सं० ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) की चैतसुदी १३ को रचा गया है, ऐसा स्वयं ग्रन्थकारने इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें लिखा है, अतएव उनका समय विक्रमकी दशवीं शताब्दीका अन्तिम चरण और ग्यारहवीं शताब्दीका प्रथम चरण सिद्ध होता है । ___ जैनधर्मामृतके दूसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायमें यशस्तिलकचम्पूके पाँचवें, छठे और सातवें आश्वासके ४५ श्लोकोंका संग्रह किया गया है । इस ग्रन्यके प्रथमखण्डका प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस बम्बईकी काव्यमालासे सन् १९०१ में और द्वितीय खण्डका प्रकाशन सन् १९०३ में हुआ है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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