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________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार - परिचय ५. महासेन और आप्तस्वरूप आप्त ( सत्यार्थदेव ) के विभिन्न नामोंको निरुक्ति के साथ आप्तके स्वरूपका इस ग्रन्थमें वर्णन किया गया है । रचना बहुत सरल होते हुए भी तर्क -पूर्ण है । १३ इसके रचयिताका नाम अभी तक अज्ञात ही रहा है । पर नियमसार - के टीकाकार श्री मलधारि पद्मप्रभने अपनी टीकामें महासेनके नामोल्लेखके साथ आप्तस्वरूपका एक श्लोक उद्धृत किया है, जिससे ज्ञात होता है कि आप्तस्वरूपके कर्त्ता आ० महासेन हैं । महासेनके द्वारा रचित 'प्रद्युम्नचरित' काव्य माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है। इसके अन्तमें ग्रन्थकारने यद्यपि स्व-परिचयात्मक कोई प्रशस्ति नहीं दी है, तथापि प्रत्येक सर्गके अन्त में " इति श्री सिन्धुराजसत्कमहामहत्तमश्रीपप्पटगुरोः पण्डितश्रीमहासेनाचार्यस्य कृते प्रद्युम्नचरिते" इतनी पुष्पिका अवश्य पाई जाती है और इसीके आधारपर ऐतिहासिक विद्वान् महासेनको विक्रमकी दशवीं शताब्दीका विद्वान् मानते हैं । इस ग्रन्थमें कुल ६४ श्लोक हैं जिनमें से २२ श्लोक जैनधर्मामृतके प्रथम अध्यायमें संकलित किये गये हैं । यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालासे वि० सं० १९७९ में प्रकाशित सिद्धान्तसारादिसंग्रह में संगृहीत है । ६. सोमदेव और यशस्तिलकचम्पू जैनवाङ्मयमें दार्शनिक, सैद्धान्तिक और राजनैतिक विवेचनके साथ व्यक्तिके चरित्रका चित्रण करनेवाला इतना प्रौढ़ एवं अनुपम ग्रन्थ अभीतक दूसरा दृष्टिगोचर नहीं हुआ । गद्य और पद्य रचनायें यह ग्रन्थ अपनो समता नहीं रखता । इस ग्रन्थके रचयिता आ० सोमदेव हैं । इनके यशस्तिलकचम्पूके अतिरिक्त अध्यात्मका प्रतिपादन करनेवाली अध्यात्मतरङ्गिणी और राज
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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