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________________ जना जैनधर्मामृत ४. गुणभद्र और आत्मानुशासन सांसारिक प्रलोभनों और इन्द्रिय-विषयोंमें मूर्छित होकर दिन-रात उनकी प्राप्तिके लिए दौड़ लगानेवाले जीवोंको सम्बोधन करनेके लिए आ० गुणभद्रने अात्मानुशासन नामक ग्रन्थकी रचना की है। चारों ओर दौड़नेवाली आत्माकी प्रवृत्तियोंपर अनुशासन कैसे करना चाहिए, यह बात इस ग्रन्थके अध्ययन करनेपर चित्तमें स्वयमेव अङ्कित हो जाती है। इस ग्रन्थमें अध्यायोंका विभाग नहीं है । ग्रन्यकी रचना विविध छन्दोंमें की गई है। रचना अत्यन्त मनोहारिणी और प्रसादगुण-युक्त है । समस्त पद्य-संख्या २७० है । इस ग्रन्थसे जैनधर्मामृतमें २ श्लोक संगृहीत किये गये हैं। श्रा० गुणभद्रने अात्मानुशासनके अतिरिक्त महापुराणके उत्तरार्ध रूप उत्तरपुराणकी भी रचना की है । गुणभद्र विक्रमकी दशवीं शताब्दीके विद्वान् हैं । गुणभद्र के गुरु श्रा० जिनसेनने जयघवला टीका शक सं० ७५६ में समाप्त की और सम्भवतः उसके पश्चात् महापुराणकी रचना प्रारम्भ की । ४२ स!की रचनाके पश्चात् उनका स्वर्गवास हो गया । लगभग १० हज़ार श्लोकोंको रचनामें यदि अधिकसे-अधिक १० वर्षका . समय भी लगा मान लिया जायँ और उत्तरपुराणकी रचना करनेमें १० ही वर्ष और लगा लिये जायें तो शक सं० ७८० के लगभग उत्तरपुराणकी समाप्तिका काल निर्धारित होता है । इस प्रकार आ० गुणभद्रका समय विक्रमकी नवीं शताब्दीका अन्तिम चरण और दशवीं शताब्दीका प्रथम चरण सिद्ध होता है। ___ यह ग्रन्थ मूल और हिन्दी अनुवादके साथ अनेकवार अनेक संस्थाओंसे प्रकाशित हो चुका है । हमने निर्णयसागर प्रेस बम्बईकी सनातन ग्रन्थमालाके सप्तम गुच्छकमें प्रकाशित मूल प्रतिका उपयोग किया है ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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