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________________ ११.१७ . चतुर्थ अध्याय मातेव सर्वभूतानामहिंसा हितकारिणी। . अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः ॥२६॥ अहिंसा ही माता के समान सर्व प्राणियोंका हित करनेवाली है और अहिंसा ही संसाररूप मरुस्थलीमें अमृतको बहानेवाली नहर है। . अहिंसैव शिवं सूते दत्ते च त्रिदिवश्रियम् । - अहिंसैव हितं कुर्याद् व्यसनानि निरस्यति ॥३०॥ यह अहिंसा ही शिवपदको देती है, यही स्वर्गको लक्ष्मीको देती है और यही अहिंसा आत्माका हित करती है, तथा समस्त व्यसनों और कष्टोंको दूर करती है ॥३०॥ अहिंसा दुःखदावाग्निप्रावृपेण्यधनावली। भवभ्रमिरुगा नामहिंसा परमौषधिः ॥३१॥ अहिंसा ही दुःखरूप दावाग्निको शमन करनेके लिए वर्षा कालीन मेघावली है और अहिंसा ही भव भ्रमणरूप रोगसे पीड़ित प्राणियोंके लिए परम ओषधि है ॥३१॥ अभयं यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम् । पश्यात्मसदृशं विश्वं जीवलोके चराचरम् ॥३२॥ अतएव प्राणियोंकी हिंसाका त्याग कर उन्हें अभयदान दो, उनके साथ निर्दोष, निश्छल मित्रता करो और समस्त चर-अचर जीवलोकको अर्थात् त्रस और स्थावर प्राणियोंको अपने सदृश देखो ॥३२॥ अहिंसैकापि यत्सौख्यं कल्याणमथवा शिवम् । दत्ते तद्देहिनां नायं तपःश्रुतयमोत्करः ॥३३॥ . . यह अकेली भगवती अहिंसा प्राणियोंको जो सौख्य, कल्याण . और मुक्ति प्रदान करती है, उसे तप, श्रुत और शील-संयमादिका
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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