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________________ ११८ जैनधर्मामृत समुदाय भी नहीं दे सकता। क्योंकि तप, श्रुत, शील-संयमादि सभी धर्मके अंगोंका आधार एकमात्र अहिंसा ही है ॥३३॥ मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतिकामोक्तव्यानि प्रथममेव ॥३४॥ हिंसाके परित्याग करनेके इच्छुक जनोंको प्रथम ही यलपूर्वक मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग करना चाहिए । मद्य-पानके दोष मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ॥३५॥ मदिरा-पान चित्तको मोहित करता है, और मोहित-चित्त पुरुष धर्मको भूल जाता है तथा धर्मको भूला हुआ जीव हिंसाका निःशंक होकर आचरण करता है ॥३५॥ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेपां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥३६॥ मदिरा, रसोत्पन्न अनेक जीवोंकी योनि कही जाती है, इसलिए मद्य-सेवन करनेवाले जीवोंके हिंसा अवश्य ही होती है ॥३६॥ भावार्थ-मदिरामें तद्रस-जातीय असंख्य जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं, और पीते समय उन सबकी मृत्यु हो जाती है, इसलिए मदिरा-पानमें हिंसा नियमसे होती ही है। अभिमान-भय-जुगुप्सा-हास्यारति-शोक-काम-कोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च शरक-सन्निहिताः ॥३७॥ अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोधआदिक हिंसाके ही पर्यायवाची नाम हैं और वे सब ही, मदिरापानके निकटवर्ती हैं ॥३७॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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