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________________ जैनधर्मामृत प्राणियों के प्राण-पीडनरूप क्रियाको हिंसा कहते हैं और हिंसा करनेसे प्राप्त होनेवाला नरक-पशु गति आदिके दुःखोंको हिंसाफल कहते हैं । प्रत्येक बुद्धिमान् मनुप्यका कर्त्तव्य है कि वह इन चारों बातोंका विचारकर हिंसासे बचे। आत्मवत्सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥२५॥ अपने समान सर्व प्राणियोंके सुख-दुःख और इष्ट-अनिष्टका . चिन्तवन करे और यतः हिंसा अपने लिए अनिष्ट और दुःखकारक है, अतः अन्यके लिए भी वह अनिष्ट और दुःखकारक समझकर परकी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥२५॥ नियस्वेत्युच्यमानेऽपि देही भवति दुःखितः । मार्यमाणः प्रहरणैर्दारुणैः स कथं भवेत् ॥२६॥ किसी प्राणीसे 'मर जाओ' ऐसा कहने पर ही वह भारी दुःखका अनुभव करता है, तो जो दारुण अस्त्र-शस्त्रोंसे मारा जा रहा है, वह कैसा होगा ? अर्थात् कितने महान् दुःखका अनुभव नहीं करता होगा ? ॥२६॥ हिंसैव दुर्गतेर हिंसैव दुरितार्णवः । हिंसैव नरकं घोरं हिंसैव गहनं तमः ॥२७॥ हिंसा ही दुर्गतिका द्वार है, हिंसा ही पापका समुद्र है, हिंसा ही घोर रौरव नरक है और हिंसा ही गहन अन्धकार है ॥२७॥ श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेपु समयेषु च । अहिंसालक्षणो धर्मस्तद्विपक्षश्च पातकम् ॥२८॥ सर्व शास्त्रोंमें और सर्व मतोंमें यही सुना जाता है कि धर्मका लक्षण अहिंसा ही है और हिंसा करना ही पाप है. ॥२८॥ . .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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