SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ MARA . चतुर्थ अध्याय विगलितदर्शनमोहैः समक्षसज्ञानविदिततत्वाथैः । नित्यमपि निःप्रकम्पः सम्यक्चारित्रमालम्ब्यम् ॥१॥ जिन्होंने दर्शनमोहनीय कर्म नष्ट कर दिया है, और सम्यग्ज्ञानसे जीवादि तत्त्वके अर्थको जान लिया है ऐसे दृढ़चित्त पुरुषोंके द्वारा सम्यक् चारित्र अवलम्बन करनेके योग्य है ॥१॥ न हि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ॥२॥ अज्ञानपूर्वक जो चारित्र होता है, वह सम्यक् नामको नहीं पाता है, अर्थात् सम्यक्चारित्र नहीं कहला सकता। इसलिए सम्यग्ज्ञानके पश्चात् चारित्रका आराधन आवश्यक माना गया है ॥२॥ चारित्रं भवति यतः विद्ययोगपरिहरणात् । सकलकपायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥३॥ यतः समस्त पाप-योगके परिहारसे सकल कषाय-रहित, निर्मल और पर-पदार्थोंमें उपेक्षारूप चारित्र होता है, अतः वह आत्माका स्वरूप है ॥३॥ भावार्थ-समस्त पाप क्रियाओंको छोड़कर और पर पदार्थोंमें राग-द्वेष न करके उदासीन या माध्यस्थ्यभावके अंगीकार करनेको चारित्र कहते हैं। हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः। कास्न्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥४॥ रनको
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy