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________________ १०७ चतुर्थ अध्याय हिंसासे, असत्यवचनसे, चोरीसे, कुशीलसे और परिग्रहसे सर्वदेश विरति और एकदेश विरतिरूप दो प्रकारका चारित्र होता है ॥४॥ . भावार्थ-पाँचों पापोंके यावज्जीवन सर्वथा त्यागको सकलचारित्र कहते हैं और एक देशत्याग करनेको देशचारित्र कहते हैं। निरतः कास्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥५॥ सर्वदेशविरतिमें निरत यति होता है, यह साधु समयसारस्वरूप है, अर्थात् सच्चा साधु-जीवन ही जैनधर्मका परम आदर्श है, और जो एकदेशविरतिमें निरत है, वह श्रावक कहलाता है।॥५॥ . भावार्थ-पाँचों पापोंका सम्पूर्णरूपसे त्यागकर सकलचारित्रका धारण करनेवाला मुनि कहलाता है और उनका एक देश या स्थूल रूपसे त्यागकर देश-चारित्रका धारक श्रावक कहलाता है। श्रावकोंके व्रत बारह होते हैं-५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत । आगे उनका क्रमशः वर्णन किया गया है। भात्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वहिंसैतत् । भनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥६॥ आत्माके शुद्धोपयोग रूप परिणामोंके घात करनेके कारण असत्य वचनादि सर्व पाप हिंसारूप ही हैं। असत्य वचनादि पापोंका भेद-कथन तो केवल शिष्योंको समझानेके लिए ही किया गया है ॥६॥ . ... भावार्थ-यदि वास्तवमें देखा जाय, तो झूठ, चोरी आदि सभी पाप हिंसाके ही अन्तर्गत हैं। उनका पापरूपसे पृथक 'उपदेश तो मन्दबुद्धि लोगोंको समझानेके लिए ही दिया गया है। • मटण
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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