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________________ चतुर्थ अध्याय १०५ अहिंसाकी रक्षाके लिए रात्रि-भोजनका त्याग भी आवश्यक है। रात्रि भोजन करनेमें किस प्रकार द्रव्य हिंसा और भाव हिंसाकी , इसका बहुत सुन्दर एवं सयुक्तिक विवेचन किया गया है और साथ ही रात्रि-भोजन करनेसे कैसे-कैसे शारीरिक रोग आदि होते हैं यह भी बतलाया गया है। इस प्रकार अहिंसा व्रतका विस्तारके साथ वर्णन करनेके अनन्तर सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतका वर्णन किया गया है। तदनन्तर तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतका स्वरूप निरूपण करके श्रावकको उक्त-व्रतोंके धारण करनेका उपदेश दिया गया है। .. अन्तमें श्रावकके लिए अत्यन्त आवश्यक संन्यास धर्मका उपदेश देते हुए कहा गया है कि समाधिमरण ही जीवन भरकी तपस्याका फल है, इसके द्वारा ही जीव संसार-समुद्रसे पार होता है, इसलिए जब वह देखे कि मेरा शरीर जीर्ण हो गया है, इन्द्रियाँ बरावर अपना काम नहीं करती हैं और धर्म-पालन करना असम्भव हो रहा है, तब वह शरीरसे ममत्व छोड़ कर वीरतापूर्वक उसके परित्यागके लिए तैयार हो। पश्चात् समाधिमरणकी विधि बतला कर कहा गया है कि इसके द्वारा ही जीव परम निर्वाणको प्राप्त होता है। श्रावक घरमें रहते हुए किस प्रकार अपने आत्मिक गुणोंका विकास करता है, यह बतलाते हुए उसके ११ पदोंका भी स्वरूप इस अध्यायके अन्तमें दिया गया है। इस प्रकार चारित्रके दो भेदोंसे देशचारित्रका वर्णन इस अध्यायमें किया गया है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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