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________________ सम्यग्ज्ञान ७७ ग्यारह इद्रिया मानी गई है, मगर जैनदर्शन पाच इन्द्रियों स्वीकार करता है। इनके आधार पर नीव के पाच प्रकार होते है। जिन अभागे जीवो को सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय प्राप्त है, उनमे चैतन्य की मात्रा स्वल्पतम है, अतएव साधारण लोगों ने ही नहीं, अधिकाश तत्त्व-चिन्तकों ने भी उनके जीवत्व को नहीं समझ पाया। उनका जीव विज्ञान-अपूर्ण रह गया है । मगर जैनदर्शन की सर्वगामिनी दृष्टि ने उन्हे देखा है और उनका अच्छा खासा विवरण भी दिया है । जैनदर्शन के अनुसार तारतम्य होने पर भी एकेन्द्रियस्थावर- जीवो मे चेतना के सम्पूर्ण विकार उपलब्ध होते है। उनमें चैतन्य, सुखदु खानुभूति, जन्म, मरण, क्रोध, कषाय, सजा आदि विद्यमान है, जिनसे उनके जीवत्व का समर्थन होता है । ऐसे जीव पाँच' प्रकार के है। १ पृथ्वीकाय --२ मृत्तिका, धातु आदि पृथ्वी इनका शरीर है । जब तक पृथ्वी अपने मूल पिण्ड से पृथ्क नहीं होती, सजीव है। २. अप्काय --3 जल ही जिन जीवो का शरीर है, वे अप्काय के जीव है। स्मरण रखना चाहिए कि जल में रहने वाले चलते-फिरते असस्य जीव अप्काय नही है । अप्काय के जीव उनसे पृथक् है, जिनका शरीर जल ही है। ३. तेजस्काय ---४ अग्नि है । जैसे मनुष्य का शरीर आहार पाकर बढ़ता है और उसके अभाव मे क्षीण होता है, उसी प्रकार अग्नि भी आहार पाकर बढ़ती है और उसके अभाव मे क्षीण होती है। इससे उसके जीवत्त्व का अनुमान किया जा सकता है। ४. वायुकाय --५ वायुकाय हवा है। परप्रेरणा के बिना ही तिर्की गति करना जीव का स्वभाव है, और यह स्वभाव वायु मे पाया जाता है। ५. वनस्पतिकाय :--६ वृक्ष, पौधा और लता आदि भी सजीव हैं । जसे १. स्थानाग, स्थानांग ५, उद्देशा १, ० ३६४ । २. उत्तराध्ययन, अ० १०, गाथा २। ३ आचारांग अ० १ Pre
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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