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________________ __७६ जैन धर्म चौकोर, न परिमण्डल, न काला, नीला, पीला, रक्त और न ग्वेत है । सुगंध और दुर्गन्ध उसका स्वरूप नही, खट्टा मीठा श्रादि कोई रस उसमे है नही । कोमल कठोर आदि सभी स्पर्श उससे दूर हैं । वह उत्पाद और विनाश से परे है, वह स्त्री नहीं, वह पुरुष नहीं, नपुसक नही, वह अरूपी सत्ता है। वह बुद्धि से नही, अनुभूति से ग्राह्य होता है। तर्कगम्य नही, स्वसवेदनगम्य है। उसका परिपूर्णस्वरूप प्रकट करने मे शब्द असमर्थ है।" "हे गौतम । जान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, सामर्थ्य-उल्लास, और उपयोग जीव के लक्षण है।" "अहम्' (मै) प्रत्यय से जीव को प्रत्यक्षत. प्रतीति होती है । जीव का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए ग्रन्यान्य प्रमाण भी है। किन्तु 'अहम्' प्रत्यय सर्वोपरि प्रमाण है। पहले कहा जा चुका है कि लोक मे जीव अनन्त है । वे सव स्वभावतः समान गक्तियो के धारक है, किन्तु कर्मो एवं आवरणो ने उनमे अनेकरूपता उत्पन्न कर दी है। उसके आधार पर सर्वप्रथम जीव दो भागो मे बांटे जा सकते है-ससारी और मुक्त । समस्त आवरणो से रहित शुद्ध जीव मुक्त, और आवरणो के कारण अशुद्ध जीव ससारी कहलाता है। मुक्त जीव सभी प्रकार के वाह्य प्रभाव से रहित होने के कारण समान है, परन्तु समारी जीवो में मुख्यतया कर्मप्रभाव के कारण नाना प्रकार के दृष्टिगोचर होते है।। कर्मप्रभाव से जीव अर्थ भौतिक जैसा बन गया है । जानने देखने की अनन्त गक्ति होने पर भी प्राख के विना देख नही सकता, और कान के विना सुन नहीं सकता। ससारी • जीव दो कक्षामो मे विभक्त है-त्रस मोर स्थावर । जिन्हें सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय ही प्राप्त है, वे स्थावर जीव है । जिन्हे दो, तीन, चार या पाच इन्द्रियाँ प्राप्त है, वे त्रस कहलाते है । "वौद्ध दर्शन" में वाईस ("बौद्ध धर्म दर्शन" पृष्ठ ३२८, साख्यदर्शन, तत्त्वार्थसूत्र, अ० २, भगवती सूत्र, शतक ५, उ०२,) और साख्य आदि दर्शनो में १. स्थानांग, स्थान २, उद्देशा १, सू० ५७ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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