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________________ मुक्ति मार्ग वीतराग कथित आगम इन्हे समझने का अभ्रान्त साधन है । इस प्रकार के जीवन्त विश्वास को तत्वश्रद्धा कहते है। तत्वश्रद्धा ही सम्यग्दर्शन' है। सम्यग्दर्शन कभी-कभी आन्तरिक शुद्धि से स्वत प्राप्त हो जाता है, और कभी-कभी सत्सगति से, या परोपदेश से प्राप्त होता है। शास्त्र मे इनको क्रमश निसर्गज और अधिगमज सज्ञा प्रदान की गई है। सम्यग्दर्शन का विरोधी गुण मिथ्यात्व है। जो श्रद्धा विपरीत है, सत्यविरुद्ध है, वह मिथ्यात्व अथवा मिथ्यादर्शन है। देव, गुरु और धर्म के विषय मे भ्रमपूर्ण या विपरीत धारणा बनाने से मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है । मनुष्य अज्ञानवश यह समझने में असमर्थ हो जाता है कि आराध्य देव कैसा पावन, पवित्र, सम्पूर्ण ज्ञानमय और सर्वथा निर्विकार होना चाहिए? इस तथ्य को न समझने के कारण वह मिथ्यात्व के चक्कर मे फंस जाता है । शास्त्र के ठीक अभिप्राय को न समझने के कारण अथवा कुशास्त्र के स्वाध्याय से शास्त्रीय मिथ्यात्व आता है । यहाँ पर यह बात ध्यान में रखनी होगी कि बहुत कुछ पाठक की दृष्टि पर शास्त्र का सम्यक्-मिथ्यात्व निर्भर करता है। जिसकी दृष्टि निर्मल है, जो सम्यग्दर्शी है, वह मिथ्याश्रुत को भी अनेकान्त पद्धति से सगत बनाकर सम्यकश्रुत के रूप में परिणत कर लेता है। इसके विपरीत, भ्रान्त धारणामो से ग्रस्त मिथ्यादृष्टि सम्यक्त को भी विपरीत अभिप्राय ग्रहण कर मिथ्याश्रुत बना डालती है। असत् गरु के कारण भी ससार मे मिथ्यात्व फैलता है। मनुष्य गुरु के वास्तविक स्वरूप को समझे बिना ही वेष, चमत्कार, या वाक्कौशल को देखकर किसी को गुरु मान लेता है । इससे वह गुरु के विषय मे मिथ्यात्वी रह जाता है। मनुष्य धर्म के विषय मे यथार्थ को समझे बिना, परम्परागत धर्मविरुद्ध रूढियो को धर्म समझ लेता है । वह उसे कुलाचार, या ऐसा ही कुछ नाम देकर मानता है और मिथ्यात्व का शिकार बनता है । जैनधर्म का आदेश है कि मनुप्य को इस प्रकार विपर्यय से वचकर और दुराग्रह का परित्याग करके देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। १. तत्वार्थसूत्र अ० १, सूत्र २। २ नन्दी सूत्र ३. नन्दी सूत्र ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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