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________________ जैन धर्म आत्मा ' पर और साथ ही अन्य तथ्य भावो पर-वस्तुजगत पर सजीव श्रद्धा होना ही सम्यग्दर्शन है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन २ को बहुत महत्व दिया गया है। सम्यग्दर्शन के अभाव मे विपुल और सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान भी अजान ही रहता है और उग्र से उग्र अनुष्ठान भी मिथ्यानुष्ठान होता है ३ जानाभूति के पीछे यदि अटूट विश्वास, जीवित श्रद्धा या दृढ प्रतीति न हुई तो ज्ञान कदापि हितावह नहीं हो सकता। आत्मा की स्वरूपच्युति का प्रधान कारण सम्यग्दर्शन का अभाव है। श्रद्धा के विना न तो अपने स्वरूप पर, और न अपने स्वाधिकार की मर्यादा पर, दृढ़ प्रतीति होती है, और न ससार के अनन्त-अनन्त जड-चेतन द्रव्यो के स्वतन्त्र अस्तित्व पर ही विश्वास होता है। उस अविश्वासी और मिथ्यादर्शी प्रात्मा की यही भावना रहती है कि समूचा ससार मेरे इशारे पर नाचे, मेरी सत्ता स्वीकार करे और मेरे शासन का कोई भी उल्लघन न करे। इस विषाक्त दृष्टि से आत्मा को ही भ्रम मे नही डाल दिया है, वरन् विश्व की शान्ति का भी विध्वस किया है। दृष्टि की इस विमूढता का कारण तत्व को यथार्थ रूप मे न समझना और उस पर विश्वास न करना ही है। जगत् मे जो सत् है, उसका कभी विनाश नही होता है, और जो असत् है, उसकी उत्पत्ति नही होती। जितने भी मौलिक द्रव्य इस लोक मे विद्यमान है, बे सव अपने अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहते है। एक द्रव्य दूसरा द्रव्य नही बनता, किन्तु प्रत्येक द्रव्य अपनी अनादिकालीन पर्याय-धारा में प्रवाहित हो रहा है, इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य का रूपान्तर होता है, मगर द्रव्यान्तर नहीं होता। ___ मूल द्रव्य छह है और तत्व नौ है । अनेकान्त दृष्टि ही इन द्रव्यो या तत्वो को समझने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। १ उत्तराध्ययन-अ० २८, गा० १५ २ उत्तराध्ययन-अ० २८, गा० ३० ३ उत्तराध्ययन--अ० २८, गा०२८ ४ अनुयोगद्वार सूत्र १४१-१२४ । ५ स्थानाग सूत्र, स्था० ९ सूत्र ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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