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________________ जैन धर्म जो आत्मा प्रकृष्ट साधना के द्वारा सर्वज्ञ, सर्वदर्गी, वीतराग, एवं अनन्तशक्तिशाली बन गया है, जिसने मिथ्यात्व, ग्रज्ञान, मोह ग्रादि अनेक प्रकार के विकारो पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली है, जो शुद्ध श्रात्मस्वरूप की उपलब्धि कर चुका है, वह सच्चा देव है । वही अर्हन्त परमात्मा कहलाता है । अर्हन्त को देव मानने की श्रद्धा, देव के प्रति सच्ची श्रद्धा कहलाती है । ५६ जिस महात्मा के जीवन मे ग्रहिसा की सुगध महकती है, जो अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है, जो पाच महाव्रतो द्वारा मुक्ति की अनवरत साधना करता है, और जो विश्व के समस्त जीवो का कल्याण चाहता है, वह सच्चा गुरु है । आत्मा को पूर्णता की ओर ले जाने वाला, तथा तत्व का यथार्थ ज्ञान कराने वाला वीतराग कथित श्रुत, एवं मुक्ति प्राप्त कराने वाला चारित्र, धर्म माना गया है ' । दयामय धर्म और अनेकान्तमय तत्व ही यथार्थ है । ग्रहिसा ही समग्र सदाचार की कसौटी है । इस प्रकार की दृढ प्रतीति सम्यग्दर्शन का मूल आधार है । सम्यग्दृष्टि पुरुष के विचार सुलझे हुए होते है । उसमे कदाग्रह तथा मताग्रह नही होता । वह सत्य को सर्वोपरि मानता है और सत्य की ही उपासना करता है । विनम्रभाव से वह सत्य के प्रति समर्पित है । सत्य पर उसकी ग्रविचल आस्था है । दानवी शक्ति भी उसे सत्य से, धर्म या अखण्ड आत्मविश्वास से विचलित नही कर सकती 1 सम्यग्दृष्टि को शुद्ध आत्मस्वरूप की झाकी मिल जाती है । वह अनन्त प्रात्मिक ग्रानन्द से परिचित हो जाता है । अतएव भौतिक सुख उसे रुचिकर प्रतीति नही होते । वह भोग भोगता हुआ भी उनमे लिप्त नही होता । सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाये रखने के लिए पाच दोषो से वचना चाहिए. १. शंका, वीतराग के वचन पर अविश्वास । २. काक्षा, परधर्म को अगीकार करने की इच्छा । ३. धर्म के फल मे सदेह करना या सतो के प्रति ग्लानिभाव रखन १. ठाणांग सूत्र, ठाणा २, उ० १, सू० ७२ २. उपासक दशांग अ० १,
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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