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________________ मुक्ति मार्ग ससार मे चलना ही है ? उसकी गति का कही विराम नही है ? कोई आश्रयस्थल नही, कोई मंजिल नही ? अगर ऐसा हो और मनुष्य की गति की कही और कभी विश्रान्ति न हो, तो फिर मुमुक्षु की साधना का उद्देश्य ही कुछ न होगा। उसका सदाचार, विश्वास और तत्वज्ञान-सब व्यर्थ हो जायेगे। मगर नही । जैनधर्म का कथन है-"अवश्य आत्मा को कर्मों के बन्धनो से मुक्ति प्राप्त होगी। इस क्षणिक जीवन के बदले शाश्वत जीवन का लाभ होगा और ससार के निस्सार एवं दु.ख व सुख से ऊपर उठकर अवश्य आत्मा को अनन्त सुखमय मुक्ति का दर्शन होगा। प्रात्मदर्शन एव सहजस्वरूप की उपलब्धि ही सम्यक् चारित्र का वह शुभ फल है, जिसे मनुष्य अपने प्राप्य अन्तिम साध्य तथा लक्ष्य को सुनिश्चित रीति से प्राप्त कर लेता है। जैनतत्वज्ञान की यह एक सबसे बडी विशेषता है कि वह जीवन को बुझे दीपक की तरह शून्य में परिणत नहीं करता, किसी विराट् सत्ता में आत्मा का विलीनीकरण करके उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को समाप्तहीन बनाकर पाषाण की भाँति जड नही बनाता । जैनधर्म के अनुसार आत्मा की अन्तिम स्थिति अनन्त सुख-सवेदन से परिपूर्ण और असीम ज्ञान के आलोक से सम्पन्न है। उस स्थिति में प्रात्मा की दिव्य शक्तियाँ निखर उठती है, और वह परम ज्योतिर्मय स्वरूप को प्राप्त करता है। उस परमसुखमय मुक्ति का जो राजपथ ' जैन धर्म ने निर्दिष्ट किया है, वह है सम्यग्जान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का समन्वय । यह रत्नत्रय ही उस शाश्वत सगीत का प्रारोह बनता है, जो गायक को सदा के लिए मुक्ति में प्रतिष्ठित कर देता है। सम्यग्दर्शन जैनधर्म ज्ञान को साध्य रूप मे स्वीकार नहीं करता। जान का फल विज्ञान अर्थात् हेय-उपादेय का विवेक है, और विज्ञान का फल बुराई को छोडकर अच्छाई को स्वीकार करना है । ज्ञान का उपयोग श्रद्धा की स्वच्छता के लिए है, और श्रद्धा का अटूट बल जीवन गोधन के लिए है। अत ज्ञान की ययार्थता पर जितना बल दिया गया है, उतना ही उसकी सच्ची श्रद्धा पर भी दिया गया है। १ "जीवागच्छन्ति सौग्गई," -उत्तराध्ययन अ० २८, गा० १-३ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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