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________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १७९ किनारो के अभाव मे प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार व्रतविहीन मनुप्य की जीवन-शक्ति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतएव जीवन-शक्ति को केन्द्रित करने और योग्य दिशा मे ही उसका उपयोग करने के लिए नतो की अत्यन्त आवश्यकता है। आकाग मे ऊँचा उडने वाला पतग सोचता है-"कि मुझे डोर के वन्धन की क्या आवश्यकता है ? यह बन्धन न हो तो मै स्वच्छन्द भाव से गगनविहार कर सकता हू"; किन्तु हम जानते है कि डोर टूट जाने पर पतग की क्या हालत होती है । डोर टूटते ही पतग के उन्मुक्त व्योमविहार का स्वप्न भग हो जाता है, और उसे धूल मे मिलना पडता है । इसी प्रकार जीवन-पतग को उन्नत रखने के लिए व्रतो की डोर के साथ बन्धे रहने की आवश्यकता है। मूलभूत दोष--प्रत्येक व्यक्ति मे भिन्न-भिन्न प्रकार के दोप पाये जाते है। उनकी गणना करना सभव नही। तथापि उन सव दोपो के मूल की यदि खोज की जाए तो विदित होगा कि मूलभूत दोष पाँच है । जो शेष समस्त दोषो के जनक है और जो व्यक्ति के जीवन मे पनप कर उसे नाना प्रकार की बुराइयो का पात्र बना देते है । वे यह है'.--- १. अहिंसा, २. असत्य, ३ अदत्तादान, ४. मैथुन और, ५ परिग्रह । इन पाच दोपो के कारण ही मानवता सत्रस्त होती और कुचली जाती है । इन्ही के प्रभाव से मानव दानव, राक्षस, चोर, लुटेरा, अनाचारी, लोभी, स्वार्थी, प्रपची, मिथ्याभावी और न जाने किन-किन वुराइयो का घर वन जाता है। यही दोप है जो आत्मा के उत्थान के मार्ग मे चट्टान की भाति प्राडे आते है, और जब मनुष्य इन पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर लेता है तो उसे महात्मा एव परमात्मा बनने मे क्षण भर का विलम्ब नही लगता। यह दोप मानव तथा अन्यान्य जीवधारियो मे भी जन्म-जन्मान्तर के कुसस्कारो के कारण प्रश्रय पा रहे है । वस्तुत यही आत्मा के वास्तविक शत्रु है। राग और द्वेष इनके जन्मदाता है। पूर्वोक्त पॉच दोषो मे भी हिंसा सबसे बडा दोष है, सब से बडा पाप . है और वही अन्य समस्त पापो का जनक है। साधारणतया प्राणघात को हिंसा कहते है, परन्तु हिंसा और अहिंसा १ तत्वार्थ सूत्र, अ० ७, सू० १, ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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