SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० जैन धर्म का स्वरूप गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन की अपेक्षा रखता है । हिंसा, प्रमाद मे । और अहिसा विवेक मे छिपी हुई है । मनोभावना ही हिंसा-अहिंसा की निर्णायक कसौटी है। किसी के प्राणो का वध हो जाना ही हिंसा नहीं है, किन्तु प्रमादवग अर्थात् राग-द्वेष के वशीभूत होकर प्राणो का जो वध किया जाता है वही हिंसा है । प्रश्न हो सकता है कि-"किसी प्राणी की रक्षा करते हुए अगर उसके प्राणो की हानि हो जाए, अथवा अपनी ओर से सावधान रहने पर भी अकस्मात् कोई जीव किसी के निमित्त से मर जाए तो क्या उसे हिंसा का दोष लगेगा ?" इस प्रश्न का उत्तर है-"नही। रक्षा करते हुए अगर प्राणहानि हुई है, और तुम्हारा विवेक पूर्ण रूप ने जागृत रहा है, तो तुम हिसा के फल के भागी नहीं होओगे। अलवत्ता अगर तुमने असावधानी की है, प्रमाद को आश्रय दिया है, या तुम्हारे चित्त मे कषाय उत्पन्न हुआ है तो अवश्य तुम्हे हिंसा का भागी होना पड़ेगा।" प्राणवध स्थूल क्रिया है और प्रमाद योग सूक्ष्म क्रिया है। प्राणवध द्रव्य हिंसा कहलाता है और प्रमाद योग भाव हिमा । भाव हिसा एकान्त हिंसा है, जब कि द्रव्य हिसा एकान्त हिसा नही । भाव हिमा की मौजूदगी मे होने वाली द्रव्य हिंसा ही हिंसा है। जैसे चिकित्सक करुणाभाव से सावधानी के साथ रोगी का आपरेशन करता है, किन्तु रोगी किसी कारण मर जाता है, तो वह द्रव्यहिंसा चिकित्सक के हिसा जनित पापवन्ध का कारण नहीं होगी। इसके विपरीत लोभ-लालच अथवा किसी अन्य कारण से चिकित्सक रोगी को विषमिश्रित औषध देता है और आयु लम्बी होने के कारण रोगी मृत्यु से बच जाता है तब भी चिकित्सक हिंसा के पाप का भागी हो जाता है। इस प्रकार जैनधर्म हिसा को क्रिया पर नही वरन् मुख्यतः भावना पर आश्रित मानता है । भावना ही हिसा और अहिसा की अचूक कसोटी है । असत्य-असत् भाषण करना दूसरा दोष है । असत् का अर्थ है 'अयथार्थ' १ तत्वार्य सूत्र, अ० ७, सूत्र ३ । २ प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा, तत्वार्थ सूत्र, अ० ७, सू० १३ ।। ३. भगवती सूत्र, श० १, उ० १, सू० ४८ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy