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________________ १७८ जैनधर्म हा धर्म अर्थात् मुक्तिमार्ग पर चलने के प्रकार दो है-- १. अगार धर्म और २. अनगारधर्म । गृहस्थी मे रहते हुए और पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्तरदायित्वो को निभाते हुए मुक्तिमार्ग की साधना करना अगारधर्म है । जिसे श्रावकवर्म या गृहस्थधर्म भी कहते है। जो विशिष्ट साधक गृह-त्याग कर साधु जीवन अगीकार करते है, पूर्ण अहिंसा और सत्य की आराधना के लिए अस्तेय, ब्रह्मचर्य को, अपरिग्रह को अगीकार करते है उनका प्राचार अनगारधर्म कहलाता है। ___ यद्यपि श्रावक और साधु, मुक्ति की साधना के लिए जिन दतो का पालन करते हैं, वे मूलत एक ही है, परन्तु दोनो की परिस्थितिया भिन्न होती है । अत. उनके व्रतपालन की मर्यादा मे भी भिन्नता होती है। समस्त लौकिक उत्तरदायित्वों का परित्याग कर, सयम और त्याग मे ही रमण करने वाला साधु जिन अहिंसा आदि व्रतो को पूर्ण रूप से पालता है, श्रावक उन्हे आंशिक रूप मे पाल सकता है। इस प्रकार योग्यता-भेद के कारण ही अगारधर्म और अनगारधर्म का भेद किया गया है । तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि व्रतो को पूर्ण रूप से पालने वाला साधक, साधु या महाव्रती कहलाता है, और आशिक रूप मे पालन करने वाला साधक श्रावक कहलाता है । व्रतविचार व्रत की परिभाषा--जीवन को सुघड बनाने वाली, आलोक की ओर ले जाने वाली मर्यादाए नियम कहलाती है। अथवा जो मर्यादाए सार्वभौम है, जो प्राणी मात्र के लिए हितावह है, और जिनसे स्वपर का हित-साधन होता है, उन्हे नियम या व्रत कहा जा सकता है। अपने जीवन मे अथवा अनुभव मे आने वाले दोषो को त्यागने का जब दृढ सकल्प उत्पन्न होता है, तभी व्रत की उत्पत्ति होती है। व्रत की आवश्यकता--सरिता के सतत गतिशील प्रवाह को नियन्त्रित रखने के लिए दो किनारे आवश्यक होते है। इसी प्रकार जीवन को नियन्त्रित, मर्यादित और प्रगतिशील बनाये रखने के लिए व्रतो की आवश्यकता है । जैसे १. निश्शल्यो व्रती, तत्वार्थ सूत्र, अ० ७, मूत्र, १८, आवश्यक चतु० आ० सूत्र ७।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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