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________________ कर्मवाद ६. वर्ण नाम कर्म-इस कर्म से शरीर मे गोरा-काला आदि रग उत्पन्न होता है। १०. गध नाम कर्म-इस कर्म से शरीर मे विशिष्ट गन्ध उत्पन्न होती है। ११. रस नाम कर्म-यह शरीर मे रस उत्पन्न होने के कारण है। १२ स्पर्श नामकर्म-इससे शरीर मे किसी विशेष प्रकार का स्पर्ग उत्पन्न होता है। ___ १३ आनुपूर्वी नाम कर्म-नया शरीर धारण करने के लिए जीव को किसी नियत स्थान पर पहुचाने वाला। १४ विहायोगति नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल अच्छी या बरी हो। यह चौदह भेद पिण्ड प्रकृतियो के नाम से प्रसिद्ध है, क्योकि इनमें से प्रत्येक के अनेक भेदोपभेद होते है । १५. अगुरुलघु नाम कर्म-हमारा शरीर शीशे (धातु) की तरह एकदम भारी और आक की रूई की तरह एकदम हल्का नहीं है, यह इस कर्म का फल है। १६ उपघात नाम कर्म-अगुली मे छठी अगुली की तरह "अपना ही अग अपने को पीडा कारक होना", इस कर्म का फल है। १७. पराधान नाम कर्म-जिसके फल स्वरूप शरीर के अवयव पर पीडाकारी न बने। १८ प्रातपनाम कर्म-उप्ण प्रकाश रूप शरीर बनाने वाला। १६ शीतल प्रकाशमय-गरीर के निर्माण का कारण । २० उच्छ्वास नाम कर्म-हम जो श्वासोच्छ्वास लेते है, वह इसी कर्म का अनुभव है। २१ निर्माण नाम कर्म-जिससे अग सुघड एव यथायोग्य बनते है । २२. तीर्थकर नाम कर्म-वह कर्म, जिसके प्रभाव से जीव तीर्थकर बनकर त्रिलोकपूज्य होता है । इनमे त्रसदशक और स्थावरदशक नाम से प्रसिद्ध बीस प्रकृतियाँ जोड देने से ४२ भेद होते है । वे प्रकृतिया ये है-- १ त्रस नाम कर्म-जिससे त्रस पर्याय प्राप्त हो । २ बादर-जिससे अपेक्षाकृत स्थूल शरीर बने ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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