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________________ जैन धर्म ५ आयुकर्म-लोहे की बेडी के समान है, जिसके खुले बिना स्वाधीनता के सुख का अनुभव नही हो सकता। यह कर्म जीव को मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारकी के शरीर मे नियत अवधि तक कैद रखता है। हमारी यह जीवित दगा इसी कर्म का फल है। ६ नामकर्म-चित्रकार विभिन्न रग सजो-संजो कर अपनी तूलिका की सहायता से नाना प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म जगत् के प्राणियों के नाना आकार प्रकार वाले शरीरो की रचना करता है। प्राणी सृष्टि मे जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य हमे दिखाई देता है, उसका कारण यही कर्म है । जैनागमो से इसके अनेक प्रकार से भेद-प्रभेद दिखलाये गये है। उन सवका उल्लेख न करके यहाँ ४२ भेदो को ही बतला देना पर्याप्त होगा। १. गति नाम कर्म-जिसके प्रभाव से जीव मनुष्य, तिर्यञ्च, देव या नारकी चार गतियो मे से एक गति पाता है । २ जाति नाम कर्म-जिसके कारण जीव एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय अादि पर्याय प्राप्त करता है। ३. गरीर नाम कर्म-जिससे जीव के पांच प्रकार के शरीरो मे से गति के अनुरूप शरीर प्राप्त होते है। ४. अंगोपाग नाम कर्म-इस कर्म के प्रभाव से शरीर के अगो और उपागो का निर्माण होता है । ५. बन्धन नाम कर्म-यह वह कर्म है जिसके कारण पूर्व-गृहीत पुद्गलो के साथ नवीन ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलो का सम्बन्ध होता है। ६. सघात नाम कर्म- जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गल व्यवस्थित रूप से स्थापित हो जाए। .. ७. संहनन नाम कर्म-इससे शरीर के अस्थिपजर की दृढ या शिथिल रचना होती है। ८. सस्थान नाम कर्म-इससे शरीर की नाना प्रकार की प्राकृतियाँ वनती है। १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३, प्रज्ञापना सत्र, २३ । २. प्रज्ञापना सूत्र सं० २९३ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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