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________________ १६६ जैन धर्म ३. पर्याप्त-जिस कर्म के प्रभाव से पुनर्जन्म के समय नवीन शरीर, इन्द्रिय, मन, श्वासोच्छ्वास आदि के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके गरीर आदि की छ. प्रकार से पूर्णता प्राप्त की जाय । ४. प्रत्येक-जिससे एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो । ५. स्थिर-यह कर्म अगोपागो को अपने-अपने स्थान पर स्थिर बनाये रखता है। ६ शुभ-जिससे गुभ की प्राप्ति हो। ७ सुभग सौन्दर्य प्राप्त कराने वाला । ८. सुस्वर-जिससे मधुर स्वर मिले । ६. प्रादेय-जिसके प्रभाव से दूसरो पर हमारी बात का असर हो । १० यश. कीर्ति-जिससे यग कोर्ति का प्रसार हो। स्थावर-दशक-१. स्थावर, २ सूक्ष्म, ३ अपर्याप्त, ४ साधारण, ५. अस्थिर, ६. अशुभ, ७ दुभंग, ८. दुस्वर, ६ अनादेय, १०. अयग अकीर्ति । नाम से ही स्पष्ट है कि यह दश कर्म पूर्वोक्त दशों से ठीक विपरीत है। यह सब मिलकर नाम कर्म के बयालीस भेद है । वास्तव मे नाम कर्म का कार्य गरीर की रचना करना, उसकी विभिन्न आकृतियाँ बनाना जीव को नवीन जन्म लेने के स्थान पर पहुंचाना, बस या स्थावर रूप देना, गरीर मे किसी भी प्रकार का रग-रूप आदि उत्पन्न करना, सुन्दर-असुन्दर स्वर बनाना, आदि-आदि है। यद्यपि रग-रूप एव स्वर आदि मे बाहर के भी कारण अपेक्षित है, मगर अन्तरग का कारण नाम कर्म ही है। इस कर्म का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक है, अतएव इसकी प्रकृतियो की संख्या भी अन्य कर्मों से अधिक है। ७. गोत्रकर्म--जैसे कुम्हार छोटे बड़े वर्तन बनाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के प्रभाव से जीव प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित कुल मे जन्म लेता है, वह गोत्रकर्म है । यह दो प्रकार का है १ उच्च गोत्र, २ और नीच गोत्र ।' १. प्रज्ञापना मूत्र, पद २३-९, २९४ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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