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________________ १२० जैन धर्म शय्या पर उनकी लाश ही धरी रहती है। साधक चाहता है कि मै साम्यभाव के सरोवर मे अवगाहन करू, मगर मन उसे राग-द्वेप के कीचड मे फसा देता है । __ मन मे अद्भुत मोहिनी शक्ति है। जो उसे नियत्रित करना चाहता है, उसी को वह अपने नियत्रण मे ले लेता है, और उस पर मनचाहा शासन करता है। इस प्रकार मन अपरिमित बलशाली है। फिर भी गौतम स्वामी कहते है-'मन दुर्जय होने पर भी अजेय नही। वह धर्मशिक्षामो के प्रयोग द्वारा जीता जा सकता है। शास्त्र मे वैराग्य और अभ्यास के द्वारा उसके विजय की शक्यता स्वीकार की है। प्रश्न होता है-'जिसके सामने बड़े-बड़े पहुचे हुए योगी भी नतमस्तक हो जाते है, और हार मान बैठते है, परन्तु जिस पर विजय प्राप्त किये विना साधक की गाड़ी-अगाड़ी नही बढ सकती, वह मन क्या है ?' इन्द्रियो की भाति मन भी आत्मा के सवेदन का एक साधन है। पर वह इन्द्रिय नही, अनिन्द्रिय अथवा नोइन्द्रिय कहलाता है। इन्द्रिया अपने-अपने नियत विषय को गोचर करती है, जैसे श्रोत्र शब्द सुनता है, आख रूप को ही और नाक गध को ही ग्रहण करती है, परन्तु मन सर्वार्थग्राहक है । वह रूप, रस, गध, स्पर्श, शब्द आदि सभी विषयो में और साथ ही अमूर्त पदार्थों मे भी प्रवृत्ति करता है। इन्द्रियो द्वारा सीमित क्षेत्र में ही विषय की उपलब्धि हो सकती है, परन्तु मन के लिए क्षेत्र की कोई मर्यादा नियत नहीं है। वह क्षण भर मे स्वर्ग, नरक आदि अखिल विश्व का चक्कर काट आता है। भगवान् महावीर ने कहा-'हे मौतम ! मन जड़ भी है और चेतन भी है। मन के दो रूप है-पौद्गलिक और चैतन्यमय । पौद्गलिक मन द्रव्यमन कहलाता है, और चैतन्यमय मन भावमन । द्रव्य मन विचार करने में सहायक होने वाले विशेष प्रकार के पुद्गल परमाणुओ की रचना-विशेष है, और उन परमाणुओ मे प्रवाहित होने वाली आत्मा की चैतन्यधारा भाव मन कहलाती है। अर्थात् मनोवर्गणा के पुद्गलो से बना हुआ तत्वविशेष द्रव्य मन है, और आत्मा की चिन्तन-मनन रूप शक्ति भावमन है। द्रव्यमन और भावमन दोनो मिलकर ही अपना चिन्तन कार्य सम्पन्न कर सकते है । विचार करना, स्मरण करना, सोचना, योजना करना, इच्छा करना, स्नेह करना, घृणा करना, मनन-चिन्तन और विश्लेषण आदि करना, ये सब मानसिक व्यापार है, और उभयात्मक मन की सहायता से ही यह सम्पन्न होते है ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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