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________________ ११० जैन धर्म कर रहा है। कोई इससे आगे बढा भी तो उसने वस्तु के नित्यानित्य स्वरूप को गडवड़झाला समझ कर अव्याकृत या अवक्तव्य कह कर पिण्ड छुडा लिया फिर भी इन सब ने अपने मन्तव्य की पूर्ण सत्यता पर बल दिया, यही संघर्ष का कारण बना। जैन दर्शन अनेकान्त के रूप मे तत्वज्ञान की यथार्थ दृष्टि प्रदान कर एक ओर सत्य का दिग्दर्शन करता है, तो दूसरी ओर दार्शनिक जगत् मे समन्वय के लिए सुन्दर आधार तैयार करता है। स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है और उसके प्रत्येक विधान मे स्याद्वाद का पुट रहता है' सूत्रकृताग सूत्र मे निर्देश किया गया है कि साधु को विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् स्याद्वाद पद्धति का अवलम्बन लेना चाहिए । भगवान् महावीर ने चौदह प्रग्नो के उत्तर, जिन्हे बुद्ध "अव्याकृत” कहते थे, और उपनिषदो के रहस्यपूर्ण गूढप्रश्नो के उत्तर, स्याद्वाद पद्धति का अवलम्बन करके दिये है। भाषा नीति-निक्षेप विधान जगत् के व्यवहार और ज्ञान के आदान-प्रदान का मुख्य साधन भाषा है। भाषा के विना मनुष्यो का व्यवहार नहीं चल सकता और न विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है। मनुप्य के पास अगर व्यक्त भाषा का साधन न होता तो उसे आज जो सभ्यता, संस्कृति और तत्वज्ञान की अमूल्य निधि प्राप्त हुई है, उसकी कल्पना करना भी अशक्य होता व मनुष्य और पशु मे अधिक अन्तर न रह जाता। भाषा केवल बोलने का ही साधन नही, अपितु विचार करने का भी माध्यम है । जन्मगत परिपुष्ट भाषा, जो हमारे अन्त करण मे सुदृढता से स्थित हो जाती है, उसी मे हम चिन्तन-मनन करते है । भापा का शरीर वाक्यो से निर्मित होता है और वाक्य शब्दो से । प्रत्येक गब्द के अनेक अर्थ हो सकते है। प्रत्येक स्थान पर प्रयुक्त हुआ शब्द, प्रसंग, आगय, विषय, स्थान, अवसर और वातावरण के अनुसार कितने ही प्रकार के अभिप्रायो को अभिव्यक्त करता है। अतएव शब्द के मूल और उचित अर्थ १. स्याद्वाद मंजरी, कारिका, ५।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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